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वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला
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जयपुरखानियां आ गई मन में आर्यिका दीक्षा की धुन समा गई आचार्य श्री वीरसागर जी अब इस निष्कलंक परंपरा के प्रथम पट्टाचार्य थे चतुर्विध संघ के नायक आचार्य थे उन्होंने इस बाल ब्रह्मचारिणी शिष्या की किंचित् परीक्षा की आर्यिका दीक्षा दी कहाँ और कब? माधोराजपुरा राजस्थान में वैशाखवदी दूज के मंगल प्रभात में सन् उन्नीस सौ छप्पन में अरमान बचपन के पूर्ण हुए आज मिल गया साम्राज क्योंकि, स्त्रीलिंग से छूटने का यही मात्र साधन है संयमीजीवन ही आत्मा का आराधन है गुरुदेव कृपासिन्धु ने नाम दिया ज्ञानमती अध्ययन की देख गती अध्यापन की अद्भुत छवी मन्दमुस्कान से लघु सम्बोधन दिया शिष्या की योग्यता में गुरु ने उद्बोधन दिया बोलेज्ञानमती ! निजनाम का ध्यान रखना परम्परा का मान रखना बस ! शुरू हो गया अब नाम का कमाल जल गई हृदय में ज्ञान की मशाल चुम्बकीय व्यक्तित्व लुभावना कृतित्व पढ़ना और पढ़ाना यही था जिनका दैनिकक्रम इसीलिए, ज्ञानमती माता में होता था आर्यिका ब्राह्मी माता का पूरा भ्रम भ्रम ही क्यों?
सच भी तो है शताब्दी की पहली बालसती वो हैं समाज की कोमल कलियों को विकसित करने में प्रधान निमित्त ही वो हैं देखो न, आज कुमारिकाओं में होड़ लगी है दीक्षा धारण करने की भावनाएं जगी हैं इन सभी में प्रधान गणिनी आर्यिका श्री ज्ञानमती माताजा ये कुमारिकाओं की पथ प्रदर्शिका हैं कलियुग की ब्राह्मी माता हैं चारित्र चक्रवर्ती परम्परा की कुशल संवाहिका है सन् उन्नीस सौ बहत्तर में, अपनी जननी माता मोहिनी को आर्यिका दीक्षा दिलवाया और उन्होंने आचार्य धर्मसागर जी से रत्नमती नाम पाया चार पुत्र नौ पुत्रियाँ तेरह सन्तानों की जन्मदात्री उस माँ ने तेरह वर्षों तक तेरह विध चारित्र पालन किये थे फिर ! पन्द्रह जनवरी उनिस सौ पचासी को माता ज्ञानमती जी के सानिध्य में समाधिस्थ हो गई पुत्री को गुरु मान समर्पित हो गई इसी समर्पण ने सार्थक कर दिया नाम क्योंकि दीक्षा के लक्ष्य ने पूरा कर दिया काम हे माता की माता ज्ञानमती ! हे युग की पहली बालसती ! त्यरत्न चंद्रिका रत्नमती ! हे भक्ति चन्द्रिका सरस्वती ! तेरे जग में नाम अनेक तू सबमें है केवल एक तेरे सारे कार्य भी तो प्राथमिकता के सूचक हैं जम्बूद्वीप की रचना ज्ञानज्योति की जलना विस्तृत साहित्य की सृजना
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