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गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रंथ
अवध की अनमोल मणि : ज्ञानमती माताजी
- रचयित्री-आर्यिका चंदनामती
जिस धरती ने अनेक अमूल्य हीरे [तीर्थंकर] दिए जिस माटी ने अपने पावन गर्भ से दो दिव्य मोती [ब्राह्मी-सुन्दरी] दिये उसी वसुन्धरा ने कोड़ाकोड़ी वर्ष बाद ईस्वी सन् उन्नीस सौ चौतिस में एक अनमोल माणिक्य प्रदान किया
और, उसे अपनी मूक वाणी के द्वारा सारा पिछला इतिहास सुना दिया शरद पूर्णिमा रात्रि का प्रथम प्रहर सवा नौ बजे का सुखद क्षण जब अवध प्रान्त में उत्तर प्रदेश के जिला बाराबंकी में टिकैतनगर ग्राम में श्रेष्ठी धनकुमारजी के पुत्र छोटेलालजी ने जन्मोत्सव मनाया पुष्पांजलि बरसाया और फिर ! अपनी प्रथम कली का कीर्तिस्थली का नाम रखा मैना जिसने सन् बावन में कह दिया मैं -ना अर्थात् मैं नहीं रहूंगी गृहस्थी में, बैठू न अब मैं संसार की किस्ती में फिर ! एक दिन
सन् उनिस सौ त्रेपन में चैत्र कृष्णा एकम को जब दुनिया रंगों की होली खेल रही थी सुन्दरियां, रंग रंगोली खेल रही थीं
और मैना, ज्ञान के रंग से कर्मों के संग में सच्ची होली खेल रही थी वह तो महावीर जी क्षेत्र पर केशलुंचन कर रही थी रत्नत्रय की प्रथम सीढ़ी पर चढ़ रही थी क्षुल्लिका दीक्षा धारण कर रही थी बस, यही तो था उनका प्रथम लक्ष्य गूंज उठा अतिशय क्षुल्लिका वीरमती की जय हो गई साधु साधना शुरू इतने में भी संतोष कहाँ था?
वैरागी मन को नारी के तन को अपना चरम लक्ष्य प्राप्त करना था चल पड़ी पुनः चारित्रचक्रवर्ती के पास शताब्दी के प्रथम आचार्य श्री शांतिसागर महाराज समाधिसम्राट जिन्होंने उत्तर की इस लघुवयस्का ज्ञान सरिता को अंतःकरण से आशीष दिया अपने पट्टशिष्य के पास भेज दिया आज्ञा गुरुवर्य की शिष्या ने शिरोधार्य की गुरुदेव की बारहवर्षीय सल्लेखना के पश्चात् वीरमती जी,
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