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गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ
[५२१
प्रवचन निर्देशिका
समीक्षक-प्रो. टीकमचंद जैन
नवीन शाहदरा, दिल्ली।
धाला
'प्रवचन निर्देशिका' नामक ग्रंथ इस युग की महान् लेखिका जम्बूद्वीप रचना की पावन प्रेरिका परम विदुषी गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी की शुद्ध प्रासुक लेखनी से प्रसूत एक मौलिक रचना है, जिसमें प्रवचनकर्ता विद्वानों के लिए आवश्यक दिशा-निर्देश दिये गये हैं, ताकि वे आगमोक्त विषयों को श्रोताओं की पात्रता के अनुरूप सही रूप में समझा सकें और अपने आदर्श चरित्र का उदाहरण पेश कर श्रोताओं में जिनधर्म के प्रति श्रद्धा दृढ़ कर सकें। सर्वतोमुखी उत्थान की पुनीत भावना से परमोपकारी माताजी ने अपनी अनवरत चलने वाली दिव्य लेखनी से निःसृत ज्ञान प्रवाह को विभिन्न साहित्यिक कृतियों के माध्यम से जन-जन तक पहुँचाया है तथा कृशकाय होते हुए भी निरन्तर सर्वोपयोगी साहित्य सृजन में लीन रहती हैं। उसी श्रृंखला में इस 'प्रवचन निर्देशिका' ग्रंथ की रचना हुई।
सार रूप में अभिव्यक्त विस्तृत ज्ञान के इस अनुपम कोष की संक्षिप्त समीक्षा करना मेरे लिए अशक्य है, तथापि ग्रंथ की विषयवस्तु का किञ्चित् परिचय प्रदान करता हूँ, ताकि विज्ञ पाठकगण इस अनुपम कृति को पढ़ने के लिए प्रेरित हों तथा आद्योपान्त पढ़कर स्व-पर कल्याण कर सकें। आज के युग में दाम और नाम
के लोभ में तथाकथित पंडित लोग निजवाणी को जिनवाणी बताकर सामान्य जन को सन्मार्ग से उन्मार्ग की आर प्रेरित कर रहे हैं तथा कुछ विद्वान् प्रवचन कला में दक्ष न होने के कारण श्रोताओं को बिल्कुल प्रभावित नहीं कर पाते। इसलिए विद्वानों को व्यवस्थित दिशा निर्देश प्रदान करने हेतु माताजी ने इस अनुपम ग्रंथ की रचना कर एक अमूल्य धरोहर विद्वद् समाज को प्रदान की है। पू. माताजी इतनी दक्ष एवं सिद्धहस्त लेखिका होते हुए भी आगम की परिधि को नहीं लांघतीं। प्रस्तुत ग्रंथ में ६८ प्राचीन ग्रंथों के प्रमाण प्रस्तुत करके माताजी ने इसकी प्रामाणिकता रिद कर दी है। प्रस्तुत ग्रंथ गागर में सागर के समान अपने में विशाल ज्ञान को समेटे हुए है। यह ग्रंथ प्रवचन की कुंजी है।
प्रस्तुत ग्रंथ लगभग २५० पृष्ठों में निबद्ध है। इसमें अध्यायों में अलग-अलग महत्त्वपूर्ण विषयों पर प्रकाश डाला गया है। प्रवचन पद्धति नामक प्रथम अध्याय में प्रवचनकर्ता के वांछनीय गुण तथा प्रवचन की विषय सामग्री (जिनवाणी) के बारे में, दूसरे अध्याय में सम्यक्त्व की उत्पत्ति के कारणों तथा तीसरे अध्याय में सम्यक्त्व के लक्षण एवं महिमा का वर्णन किया गया है। चतुर्थ अध्याय में व्यवहार नय व निश्चय नय का विस्तृत विवेचन कर बताया गया है कि सभी नय अपने-अपने विषय का कथन करने में समीचन हैं तथा मोक्ष के कारण हैं। श्रावक तो व्यवहार नय के आश्रित एक देश चारित्र को ही धारण कर सकते हैं। निश्चय का तो उनके मात्र श्रद्धान ही हो सकता है। पंचम अध्याय में निमित्त-उपादान जैसे गूढ़ विषय को सप्रमाण एवं सोदाहरण बड़े सरल एवं बोधगम्य रूप में प्रस्तुत किया गया है। प्रत्येक कार्य में निमित्त एवं उपादान दोनों की प्रधानता होती है। सहकारी कारण निमित्त और जो स्वय कार्य रूप परिणित हो जावे, उसे उपादान कहते हैं। मोक्ष के लिए निमित्त रत्नत्रय है, जिसमें भक्ति, पूजा, दान, संयम आदि गर्भित है।म अध्याय में चारों अनुयोगों (प्रथमानुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग एवं द्रव्यानुयोग) की सार्थकता बताते हुए कहा गया है कि इनका क्रमपूर्वक अध्ययन सम्यक्त्व प्राप्ति का कारण तथा मोक्षमार्ग में चलने के लिए दीपक है। सातवें अध्याय में पंचमकाल में मुनियों के अस्तित्व का आगमोक्त वर्णन करते हुए उनकी उत्कृष्ट चर्या पर प्रकाश डाला गया है, ताकि ऐसे महान् तपस्वी वर्तमान के साधुओं के प्रति अगाध श्रद्धा सहज ही उत्पन्न हो सके।
व अध्याय में ग्रंथों के अध्ययन-अध्यापन की शैली का विस्तृत वर्णन किया गया है। शास्त्रों में वर्णित विषयों को जनमानस के समक्ष प्रवचन के मायाम से इस तरह प्रस्तुत करना कि वे विषय को पूर्णतः समझ सकें। ऐसा तभी संभव है, जबकि स्वयं विषय का जानकार प्रवचनकर्ता श्रोताओं की
ना के अनुरूप पूर्वापर संबंध स्थापित कर नय विवक्षा का आश्रय लेकर विषय को प्रस्तुत करे। अंतिम नवम अध्याय में धर्म ध्यान की उपयोगिता का बताकर आतं-राद्र ध्यान को हटाने को कहा गया है, ताकि साधक क्रमशः कर्मों की निर्जरा कर मोक्ष पथ की ओर अग्रसर हो सके।
प्रस्तुत प्रथ का आद्योपान्त अध्ययन समस्त प्रबुद्ध वर्ग के समीचीन ज्ञानवर्द्धन में सहायक होगा, उनको प्रवचन कला में निपुण, कायेगा, उनका भी बनाकर आगम विरुद्ध बोलने पर अंकुश लगायेगा तथा मात्र इसके ज्ञान से परमपूज्य गप्पिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी के असीम ज्ञान का लाभ नवनीत रूप में हमें सहज ही प्राप्त हो सकेगा।
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