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वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला
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७७ कम्पेशियन:- मृगसेन धींवर की प्रतिज्ञा के सुफल को प्रदर्शित करने वाले जीवनदान उपन्यास का यह अंग्रेजी रूपांतर है। प्रथम संस्करण
मार्च १९८४ में, पृष्ठ संख्या ३३, मूल्य १.५० रु०। जम्बूद्वीप पूजा एवं भक्तिः- जम्बूद्वीप के कृत्रिम-अकृत्रिम जिनालयों की एक पूजा तथा जिनालयों की एवं सुमेरु की भक्ति पूज्य माताजी द्वारा रचित है। प्रथम संस्करण अप्रैल १९८५ में, पृष्ठ संख्या ३२ मूल्य १.०० रु० । हस्तिनापुर पूजा:- हस्तिनापुर क्षेत्र की पूजन, आदिनाथ, भरत, बाहुबली पूजन तथा शांति, कुन्थु, अरनाथ की पूजन दी गई हैं जो कि पूज्य माताजी द्वारा रचित हैं। पूजाओं को पढ़ने से तत् सम्बंधि पूर्ण परिचय प्राप्त हो जाता है। प्रथम संस्करण अप्रैल १९८५ में। पृष्ठ संख्या २४, मूल्य १.०० रु०। कुन्दकुन्द का भक्तिरागः- भक्ति मार्ग का प्रचार-प्रसार आज से नहीं, आचार्य कुन्दकुन्द के समय से था। वीतराग मार्ग का अनुशरण करते हुए स्वयं आचार्य कुन्दकुन्ददेव ने भक्ति पाठों की रचना की। ये भक्तियाँ प्राकृत भाषा में रचित हैं। आर्यिका रत्नमतीजी के विशेष आग्रह से पूज्य माताजी ने इनका हिन्दी पद्यानुवाद सन् १९७२ में कर दिया था, किन्तु उनका प्रकाशन सन् १९८५ में हो पाया।
इस पुस्तक में आचार्य पूज्यपाद कृत संस्कृत भक्तियों का तथा गौतम गणधर रचित दो भक्तियों का हिन्दी पद्यानुवाद भी दिया गया है। प्रथम संस्करण अप्रैल सन् १९८५ में, पृष्ठ संख्या १३३+१८ मूल्य ८/- रु०। ८१. नियमसार प्राभृतः- नियमसार की आ. पद्मप्रभमलधारीदेव कृत टीका की हिन्दी करने के बाद माताजी के भाव नियमसार पर ही पुनः संस्कृत
टीका लिखने के हुए। तदनुसार संस्कृत टीका लिखकर स्वयं ही माताजी ने उसकी हिन्दी टीका भी कर दी। हिन्दी टीका के साथ-साथ आवश्यकतानुसार भावार्थ-विशेषार्थ देकर विषय को अच्छी तरह से स्पष्ट कर दिया है। अध्यात्म को आत्मसात् करने के लिए यह नियमसार
प्राभृत टीका अति उपयोगी है। प्रथम संस्करण का प्रकाशन अप्रैल १९८५ में | पृष्ठ संख्या ५७८+३६, मूल्य ७०/- रु०। ८२. सती अंजनाः- जैन जगत् में सती अंजना का नाम सुपरिचित है। इस उपन्यास में अंजना की जीवनी अति सुंदर एवं आकर्षक शैली में दी
गई है। प्रथम संस्करण १९८८ में। पृष्ठ संख्या १२८, मूल्य ४/- रु०। कातंत्ररूपमाला:- (व्याकरण) श्री सर्ववर्म आचार्य प्रणीत यह कातंत्ररूपमाला नाम की व्याकरण दि० जैन परंपरा में संस्कृत भाषा का ज्ञान प्राप्त करने के लिए सबसे सरल व्याकरण है। इसमें कुल १३८३ सूत्र हैं। आचार्य भावसेन त्रैविद्य ने इसकी टीका लिखी है। इस पर दौर्गसिंह कृत टीका भी प्राचीन ग्रंथ भंडारों में मिलती है । सन् १९५४ में जयपुर में माताजी ने इस व्याकरण को मात्र २ माह में कण्ठस्थ कर लिया था। यही व्याकरण माताजी के ज्ञानरूपी महल की नींव का प्रथम पत्थर है।
अनेक विद्यार्थियों की इस व्याकरण को पढ़ने की रुचि एवं आग्रह से माताजी ने सन् १९७३ में इसके सूत्रों व टीका का हिन्दी अनुवाद किया। बहुत चाहते हुए भी १४ वर्ष के पश्चात् मार्च १९८७ में इसका हिन्दी टीका सहित प्रकाशन हुआ। वीरज्ञानोदय ग्रंथमाला के १३५ पुष्पों में मात्र एक यही ग्रंथ ऐसा रहा, जिसकी ५०० प्रतियाँ छपाई गईं यह सोचकर कि इसको पढ़ने वाले बहुत कम मिलेंगे। एक वर्ष में ही सारी प्रतियाँ समाप्त हो गईं यदि शीघ्र पुनर्मुद्रण हो जाता तो शायद हजार प्रतियाँ और समाप्त हो जाती किन्तु व्यस्तता के कारण अभी तक द्वितीय संस्करण नहीं छप सका है। प्रथम संस्करण मार्च १९८७ में, पृष्ठ संख्या ४५८+२६, मूल्य ५१/- रु०।
जम्बूद्वीप विधान:- इस विधान में जम्बूद्वीप के अकृत्रिम व कृत्रिम चैत्यालयों की पूजाएं हैं। इसका प्रथम संस्करण मार्च १९८७ में प्रकाशित हुआ। पृष्ठ संख्या ३६+१८, मूल्य १५/- रु०। कल्पद्रुम विधान:- सन् १९८६ में यह विधान पहली बार पूज्य माताजी की कलम से लिखा गया। इससे पहले इस नाम से कोई भी रचना
देखने में नहीं आई। इसमें समवसरण की पूजा है। प्रथम संस्करण १९८७ में, तृतीय संस्करण मई १९९२ में, पृष्ठ सं.४६४, मूल्य ४०/-रु.। ८६.
मण्डल विधान प्रारंभ एवं हवन विधिः- मंडल विधानों के प्रारंभ में सकलीकरण, मंडप प्रतिष्ठा इन्द्रप्रतिष्ठा आदि कराने की विधि वैसे तो विस्तारपूर्वक प्रतिष्ठा ग्रंथों में दी गई है किन्तु उतनी बड़ी विधि विधानों में करा पाना कठिन है तथा आज विधि विधान कराने वाले विद्वानों का संस्कृत भाषा का ज्ञान भी अल्प है, अतः माताजी ने अधिकांश का हिन्दी पद्यानुवाद कर दिया है तथा क्रियाओं के कराने का संकेत भी हिन्दी में दे दिया है। जिससे कि कराने वाले तथा करने वाले उन क्रियाओं को अच्छी तरह से समझ जाते हैं। पुस्तक के अंत में हवन कराने की विधि व हवन कुंड बनाने के चित्र भी दिये हैं। इस प्रकार विधिविधान कराने की यह एक प्रामाणिक पुस्तक तैयार हो गई है। प्रथम संस्करण
जनवरी १९८८ में। पृष्ठ संख्या १२८+२८, मूल्य ८/- रु० । ८७. सामायिक पाठ (देववंदना):- सामायिक का दूसरा नाम देववंदना भी शास्त्रों में आया है। इस पुस्तक में शास्त्रोक्त विधि से सामायिक करने
की प्रक्रिया दी गई है। माताजी ने हिन्दी पद्यानुवाद कर दिया है। प्रथम संस्करण अक्षय तृतीया सन् १९८८ में, पृष्ठ संख्या १६, मूल्य १/-रु० । गोम्मटसार जीवकांडसार:- आचार्य नेमीचंद सिद्धांत चक्रवर्ती विरचित गोम्मटसार जीवकांड ग्रंथ ७३४ प्राकृत गाथाओं में रवित है। अति दुरूह होने से इसे हृदयंगम करना जनसाधारण के बस की बात नहीं है इस दृष्टि से माताजी ने ७३४ गाथाओं में से १४९ गाथाएँ चयनकर इस
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