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गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ
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६३ से ६७ तक ऋषभदेव, वासुपूज्य, नेमिनाथ व महावीर की निर्वाणभूमि का परिचय देकर वंदना की है
"इस भरत क्षेत्र में चौबीस, तीर्थंकर का मुक्त क्षेत्र शाश्वत ।
गिरि सम्मेद शिखर ही काल, दोष से ये शिव गए पृथक ॥" इस तीर्थराज से भूतकाल में वर्तमान काल में और भविष्यकाल में मुक्ति प्राप्त करने वाले सभी सिद्धात्माओं की वे श्रद्धा से वंदना करती हैं। इस तीर्थ की वंदना का अधिकारी भव्य जीव ही हो सकता है, मिथ्यात्वी नहीं। उसका फल भी कितना भव्य है
"भव्य जीव ही दर्शन पाते, नहिं अभव्य को मिल सकते। एक बार वंदना करे जो, गति नरक तिर्यंच टले, उनचास भव के अंदर, मुक्ति श्री निश्चित उसे मिले।
असंख्य उपवासों का फल, इस पर्वत वंदन से मिलता।
अधिक और क्या जब त्रिभुवन, साम्राज्य सौख्य निश्चित मिलता। अंत में वे वर्तमान युग के आचार्य अपने गुरु आदि मुनिवरों का वंदन करती हैं।
वसंततिलका छंद में 'श्री बाहुबली स्तोत्रम्' की रचना उनकी संस्कृत काव्य प्रतिभा का परिचायक स्तोत्र है। उसे पढ़कर लगा कि यह जैनधर्म की नहीं, अपितु संस्कृत स्तोत्र साहित्य की अमूल्य धरोहर बन सकता है। मैं पहले भी लिख चुका हूँ कि गणिनीजी संस्कृत हिन्दी की उच्चकोटि की कवयित्री हैं। उनकी भक्ति-सलिला निरन्तर काव्य भूमि पर प्रवाहित होती रहती है। साधारण भक्तजनों के लिए संस्कृत का हिन्दी पद्यानुवाद प्रस्तुत किया है। साथ ही उसका गद्यात्मक विवरण प्रस्तुत करके उसे जनस्वाध्याय योग्य बनाया है। यद्यपि भगवान बाहुबली काव्य पुस्तक में व उनके गुण, रूप, तप आदि का वर्णन कर चुकी हैं, तथापि यह संस्कृत का काव्य स्वयं में मौलिकतासम्पन्न है। पूरा बाहुबली का जीवन काव्य में गुंफित है। मानतुंगाचार्य की भाँति अपनी अल्पज्ञता प्रस्तुत करते हुए कहती हैं
"हे जिन! कर्म उदय से मैं हूँ शक्ति हीन औ बुद्धि विहीन । फिर भी तव भक्ति वश होकर स्तुति करने को उद्यमलीन ॥ शक्ति विचारे बिन मेंढक भी भक्ति वश हो तुरत चला।
मारग में ही मरकर सुरपद पाया क्या नहिं अहो भला ॥" इसी प्रकार उनके स्मरणमात्र से रसना पावन हो जाती है। उन कामजयी बाहुबली के गुणों का वर्णन सुरगुरु भी नहीं कर सकते, फिर मैं तो अल्पज्ञ हूँ। इसमें कवयित्री की निरभिमानता प्रकट हुई है। अरे! उन बाहुबली की स्तुति तो दूर की बात है, उनका नाम स्मरण ही सिद्ध रसायन स्वरूप है। उनके सौन्दर्य के लिए उपमान ही कहाँ ?
पुनःपुनः दर्शन से भी आंखें कहां तृप्त होती हैं। 'हे प्रभु कामदेव! अति सुंदर हरित वर्ण शुभ तनु शोभित ।
किससे उपमा करूं तुम्हारी यदि तुम समजन हो इस जग। उनके रूप के लिए सूर्य-चन्द्र के उपमान भी फीके हैं, जिनका क्षय होता है। देवगण भी वैसी दीप्ति कहाँ रखते हैं? बाहुबली भगवान आपका मुखमंडल तो सभी उपमानों से भी ऊपर है
"नाथ आपका मुख है धवलोज्ज्वल कीर्ति कांति से कांत । अति रमणीय विकार शोक भय मद विषाद से दूर नितांत । मंदहास्य युत अतुल सुभग हैं, सौम्य शांतमय महाप्रशांत ।
हर्षोत्कट से नित प्रति सबजन, मन को हरता है भगवान ॥ कवयित्री का हृदय उन बाहुबली भगवान के दर्शन से इतना प्रसन्न है कि उनकी वाणी भक्ति रस से ओत-प्रोत हो गई है। कभी उनके कामदेव-स्वरूप का विविधि उपमानों से वर्णन करती हैं तो कभी सारे उपमान फीके लगते हैं। कभी बेलों से मंडित शरीर में अलौकिक कांति के दर्शन करती हैं तो कभी चरणों में वन वाल्मीकि को निहारती हैं, वहां परस्पर वैर भूलकर प्राणी किल्लोल करते हैं। उनकी भक्ति की नदी आज भावातिरेक में भावों की नदी बनकर उछल रही है। हृदय की यह विह्वलता उन्हें भक्ति रस में प्लावित करती है। ऐसे नाथ के चरणों में भक्त के कष्ट स्वयं तिरोहित हो जाते हैं। असाता कर्म
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