Book Title: Aryikaratna Gyanmati Abhivandan Granth
Author(s): Ravindra Jain
Publisher: Digambar Jain Trilok Shodh Sansthan

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Page 588
________________ ५२४] वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला २७. २३. प्रतिज्ञाः- "मनोवती की दर्शन कथा" के आधार पर लिखा हुआ यह रोमांचक उपन्यास है। पंचम संस्करण-सितम्बर १९८९ में. प. संख्या १२८, मूल्य ५/- रु.। प्रवचन निर्देशिका:- पूज्य माताजी के सानिध्य में हस्तिनापुर में सन् १९७८ के अक्टूबर माह में शांतिवीर सिद्धांत संरक्षिणी सभा व दिगम्बर जैन त्रिलोक शोध संस्थान के संयुक्त तत्त्वावधान में एक शिक्षण-प्रशिक्षण शिविर का आयोजन किया था। शिविरार्थियों को प्रवचनकला का शिक्षण देने के लिए माताजी ने शिविर से पूर्व यह पुस्तक मात्र दो माह में लिखकर तैयार कर दी। इसमें ५० ग्रंथों से संकलन है। प्रवचन कर्ताओं के लिए अति उपयोगी हैं। प्रथम संस्करण अक्टूबर १९७७ में, तृतीय संस्करण नवम्बर १९९१ में, पृ. संख्या २२८. मूल्य २०/- । २५. चौबीस तीर्थकरः- चौबीस तीर्थंकरों का अलग-अलग संक्षिप्त परिचय प्रस्तुत पुस्तक में दिया गया है। प्रत्येक तीर्थंकरों की पूर्व पम्। सं आगमन, पांच कल्याणकों के स्थान, तिथियाँ आदि दी गई हैं। तीर्थंकरों के जीवन की लगभग सभी प्रमुख घटनाएँ प्रत्येक परिचय में एक ही पुस्तक में माताजी ने संगृहीत कर दी हैं। प्रथम संस्करण सन् १९७९ में, द्वितीय संस्करण जनवरी १९८२ में, पृष्ठ संख्या ८८, मूल्य २.५० रु.।। आराधना (अपरनाम-श्रमणचर्या):- दिगम्बर मुनि-आर्यिकाओं की दीक्षा से समाधिपर्यंत प्रतिदिन प्रातः से सायंकाल तक की जाने वाली चर्या एवं क्रियाओं को दर्शाया गया है। गणिनी माताजी ने अपने संस्कृत-व्याकरण छंद का पूर्ण रूप से इसमें सदुपयोग किया। संपूर्ण ४५१ संस्कृत श्लोक स्वयं माताजी द्वारा रचित हैं। प्रत्येक श्लोक का हिन्दी में अर्थ तथा जगह-जगह भावार्थ भी उन्हीं का है। श्लोकों के शीर्षक भी दिये हैं। साधु-साध्वियों के लिए एवं उनकी चर्या को जानने वाले जिज्ञासु श्रावक-श्राविकाओं के लिए यह छोटा-सा ग्रंथ अति उपयोगी है। प्रथम संस्करण १९७९ में, पृ. सं. १४३, मूल्य २.५० रु. । शिक्षण पद्धति :- बालक-बालिकाओं तथा जैन धर्म का प्रारंभिक ज्ञान अर्जन करने वाले युवा एवं प्रौढ़ स्त्री-पुरुषों को किस प्रकार से शिक्षण देना चाहिए कि जिससे उनको समीचीन ज्ञान की प्राप्ति हो तथा जिन धर्म के दृढ़ श्रद्धानी बनें। इस पुस्तक में बालविकास चार भाग, छहढाला तथा द्रव्य संग्रह पुस्तकों को किस प्रकार से पढ़ाना चाहिए, उसकी पद्धति शिक्षकों के लिए दी गई है। प्रथम संस्करण सितम्बर, १९७९ में, पृ. संख्या-३२, मूल्य १.०० रु.।। पंचपरमेष्ठी विधान:- पंचपरमेष्ठी जैन धर्म के मूल आधार हैं। प्रत्येक संज्ञी जीव (मनुष्य या तिर्यंच) इन्हीं का नाम जपकर, पूजा भक्ति करके अपने पापों का नाश करते हैं। इस विधान में भी पंचपरमेष्ठी के गुणों की आराधना की गई है। प्रथम संस्करण मार्च १९८२ में, पृ. संख्या ६८, मूल्य ३/- रु. । तृतीय संस्करण अप्रैल १९९१ में, पृ.सं. ६२+८, मूल्य ६/- रु.। तीसचौबीसी विधानः- इस ग्रंथ में पंचमेरु संबंधि वर्तमान, भूत एवं भविष्यकालीन तीस चौबीसी के ७२० तीर्थंकरों की पूजाएं हैं। प्रथम संस्करण जनवरी १९८१ में, पृ. संख्या २५६, मूल्य ८/- रु., तृतीय संस्करण अप्रैल १९९२ में, पृष्ठ संख्या २६०+२६, मूल्य २५/- रु.। भगवान बाहुबली:- भगवान बाहुबली सहस्राब्दि महामस्तकाभिषेक श्रवणबेलगोल के पावन प्रसंग पर भगवान बाहुबली की जीवन गाथा तथा ५७ फुट ऊँची अति मनोज्ञप्रतिमा का प्रत्यक्ष या परोक्ष दर्शन का आनंद प्रदान कराने के लिए यह पुस्तक तैयार की गई। इसमें १११ पश्यों में बाहुबली लावणी तथा गद्य में जीवन चरित्र दिया गया है। दोनों रचनाएं पूज्य माताजीकृत हैं। बाहुबली लावणी का सृजन सन् १९६५ में श्रवणबेलगोल में साक्षात् बाहुबली की प्रतिमा के समक्ष बैठकर माताजी ने किया था। सन् १९८१ में इसी लावणी को संगीतबद्ध करके ७ सप्ताह तक आकाशवाणी दिल्ली से प्रसारित किया गया था, जिसका शीर्षक था "पाषाण बोलते हैं।" प्रथम संस्करण मार्च १९८०, पृ. संख्या ५६, मूल्य २.०० रु.। रत्नकरंड श्रावकाचार:- तार्किक शिरोमणि आचार्य समंतभद्रकृत सर्व परिचित रत्नकरंड श्रावकाचार ग्रंथ के १५० श्लोकों का माताजी ने हिन्दी पद्यानुवाद किया है। इसमें हिन्दी पद्य तथा पद्यों के सामने संक्षेप में अर्थ दिया गया है। शिक्षण शिविरों तथा विद्यालयों के लिए विशेष उपयोगी है। रत्नकरंड पद्यावली के नाम से प्रथम संस्करण मई १९८० में, पृ. संख्या १०६, मूल्य २.५० रु., द्वितीय संस्करण में हिन्दी पद्यानुवाद तथा अर्थ के साथ-साथ आचार्य श्री कृत संस्कृत श्लोक भी दिये गये हैं। द्वितीय संस्करण मई १९९२ में, पृ. संख्या ९४ मूल्य ६/- रु.। ३२. भक्ति:- यह भी उपन्यास है, जिसमें सेठ सुदर्शन, महामुनि सुकुमाल, रक्षाबंधन एवं अंजन चोर की कथाएं हैं। इस ग्रंथमाला से कम्प्यूटर कम्पोजिंग करवाकर ऑफसेट से छपने वाली यह प्रथम पुस्तक है। प्रथम संस्करण सन् १९८४ में, पृ. संख्या १०६, मूल्य १.५० रु. ! द्वितीय संस्करण सन् १९९२ में । पृ. संख्या १०३, मूल्य ५.०० रु.। प्रभावना:- इस उपन्यास में अकलंक-निकलंक का जीवन-वृत्त दिया गया है। प्रथम संस्करण सन् १९८० में। द्वितीय संस्करण सन् १९८२ में। पृष्ठ संख्या ८०, मूल्य २.५० रु.। ऋषि मंडल विधान पूजन:- यह विधान दिगम्बर जैन समाज में चिरकाल से प्रसिद्ध है। सुख, शांति व समृद्धि के लिए इस विधान की पूजन व ऋषिमंडल स्तोत्र का पाठ किया जाता है। माताजी ने विधान पूजन का हिन्दी व स्तोत्र भी हिन्दी में बना दिया है, जिससे पढ़ने वालों को विशेष आनंद प्राप्त होता है । प्रथम संस्करण का प्रकाशन सन् १९८१ में, तृतीय संस्करण अप्रैल १९९१ में । पृ. संख्या ५२+८, मूल्य ५/- रु. । ३०. Jain Educationa international For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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