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नियमों का प्रतिदिन पालन करते हैं। बाईस परीषह सहन करते हैं, प्रणम्य होती है। इनका धरा पर विचरण सुख-समृद्धिदायी, शांतिवर्द्धक एवं लोकमंगलकारी होता है, इसीलिए कहते हैं
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"पडिवज्जदु सामण्णं जदि इच्छसि दुक्खपरिमोक्खं" यदि दुःखों से मुक्त होना चाहते हो तो श्रामण्य (दिगम्बर साधुत्व) को स्वीकार करो।
पूज्य मातुश्री जी कहती हैं— "ऐसे साधुओं को इन्द्र, देव और दानव भी नमस्कार करते हैं, यही कारण है कि इस धरती पर विचरण करते हुए ये धरती के देवता माने जाते हैं।"
वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला
प्रस्तावक के रूप में "युवामनीषी डॉ. अनुपम जैन ने पुस्तक की महत्ता और सामयिकता के संदर्भ में उचित ही लिखा है- "दिगम्बरव के संदर्भ में व्याप्त भ्रांतियों के निराकरण हेतु एवं वस्तुस्थिति के व्यापक प्रचार की दृष्टि से पुस्तक अत्यंत उपयोगी है।"
सभी स्वाध्यायप्रेमी पुस्तक को पढ़ते ही जहाँ एक ओर दिगम्बर चरणों में स्वयं को प्रणमित पायेंगे, वहीं आत्मविश्लेषित करते हुए अपने दानवत्व को तिरोहित करते हुए देवत्व की ओर अग्रसर होंगे
वन्दनीया, परमपावन मां- श्री के चरणों में कोटिशः वन्दामि ।
जैन হ3 লক
शिक्षण पद्धति
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समीक्षक डॉ. राममोहन शुक्ल, सारंगपुर (म.प्र.)
आधुनिक युग में विद्यालयों, महाविद्यालयों एवं विश्वविद्यालयों के माध्यम से शिक्षण कार्य किया जा रहा है। इससे ज्ञान का विस्फोट तो हो रहा है, परन्तु नैतिक स्तर का ह्रास भी परिलक्षित है। विशेषतः जो नैतिक स्तर व धार्मिक जीवन कुछ वर्ष पहले विद्यार्थियों में पाया जाता था, वह धीरे-धीरे कम होता जा रहा है। धार्मिक अध्ययन या तो बंद होता जा रहा है या वह अधिकांश विद्यार्थियों को नीरस मालूम होता है, बालकों में प्राथमिक स्तर से प्रारंभ नीरसता का अहसास अंत तक उनमें बना रहता है। दुर्बोधता और नीरसता का बात से प्रायः कोई संबंध नहीं होता कि पढ़ने वाला बुद्धिमान् है या मंदबुद्धि । बचपन में हुआ यह प्रथम परिचय भय की या कम से कम विरक्ति की ऐसी गहरी छाप मन पर छोड़ जाता है कि इस विषय के बारे में जानने की उत्सुकता कभी नहीं जागती। दूसरे भी कुछ कारण हैं, जिनसे इस अज्ञान और अरुचि का भाव जीवन भर बना ही रहता है। ऐसी स्थिति में ग्रंथ में वर्णित विषय अवकाश में विद्यार्थियों में शिविरों के माध्यम से धर्माध्ययन की रुचि उत्पन्न करने की दिशा में सराहनीय प्रयत्न है वीर ज्ञानोदय ग्रंथमाला का २७वां पुष्प 1 " शिक्षण पद्धति" इस पुस्तिका में लेखिका ने बहुत परिश्रम से भगवान महावीर द्वारा उपदिष्ट पाँच शिक्षाएँ अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह को देश व राष्ट्रहित में आवश्यक निरूपित किया है। पुस्तक में बाल विकास भाग १, २, ३, ४ के पाठों की पद्धति सरल एवं रोचक शैली में लिखी गयी है। जैन धर्म
की जानकारी न रखने वाले पाठक भी आसानी से जिन्हें पढ़ व समझ सकें, ऐसी पुस्तक बहुत कम देखने को मिलती है और यह पुस्तक उस तरह की है। इस पुस्तक में जिस पुस्तक की पाठ शैली दी गयी है, वह पुस्तक भी साथ में पढ़ना अनिवार्य है। अध्यापक आदि विद्वान् वर्ग और विदुषी महिलाएं बाल विकास, छहढाला, द्रव्य संग्रह आदि पुस्तकों को पढ़ाते समय सामान्य अर्थ का ज्ञान कराकर, विशिष्ट अर्थ को समझाने के लिए यह पुस्तक सर्वोत्तम है। छहढाला की छहों ढालों में प्रत्येक पद्धति का विवेचन भी पुस्तक में किया गया है। इस पुस्तक में तीसरा ग्रंथ द्रव्य संग्रह पर दृष्टि डाली गयी है। द्रव्य संग्रह जैन वाङ्मय का लघुकाय एक ऐसा ग्रंथ है, जिसे सभी स्वाध्याय प्रेमी समझना चाहेंगे, क्योंकि द्रव्यों का स्वरूप समझे बिना आगम की कोई बात समझ में नहीं आ सकती। पुस्तक इतनी सरल और रोचक शैली में लिखी गयी है कि कहानी की तरह पढ़ी जा सके।
पुस्तक कई दृष्टियों से सराहनीय है, क्योंकि शिक्षक वर्ग के लिए यह शिक्षण पद्धति लघु पुस्तिका रूप में अध्यापन में सहायक सिद्ध होगी। विभिन्न भारतीय भाषाओं में ऐसे प्रयास हों अथवा इस ओर ऐसी पुस्तकों का भाषान्तर हो, यह बहुत जरूरी है। यदि भाषान्तर को साथ-साथ ही प्रकाशित करवायें तो यह एक सार्थक पहल होगी।
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