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गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ
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प्रभु के गमन का दृश्य कितना मनोहारी है
"प्रभु बिहार में आगे चलता, धर्मचक्र राजे सुखकर ।
कनक कमल पर प्रभुपग धरते, गमन गमन करते मनहर।" इन पार्श्वनाथ प्रभू की भक्ति जिन्हें प्राप्त हो गयी है वे संसार के मोह-माया से स्वयं मुक्त बन जाते हैं। उसके रोग-शोक नष्ट हो जाते हैं
"नाथ! आपको पाकर नहि, कोई मोही होता जग में। नाथ! शोक से रहित तुम्हें लख, नहिं जन शोक करे मन में। राग रहित पा नाथ! तुम्हें, नहिं राग भाव धारे कोई।
तंद्रा रहित नाथ को पा, तंद्रा निद्रा खोते सब ही।" संग्रह में संगृहीत श्री वीरजिनस्तुति पृथक् से लघु संग्रह के रूप में प्रकाशित रचना है, जिनकी पृथक् समीक्षा की जा चुकी है। शांतिभक्ति में भक्तहृदय की भक्तिधारा ही प्रवाहित है। ये समस्त भाव श्री शांतिजिन स्मुति में प्रकट हो चुके हैं।
एक प्रश्न मन में उठ सकता है कि कवयित्री ने बार-बार पुनरार्वतन क्यों किया? भक्ति का एक ही स्वर पुनः पुनः क्यों छेड़ा? तो उसका उत्तर बड़ा ही सटीक यह है कि भक्ति कभी पुनरावर्तित नहीं होती, वह तो पुनःपुनः भी चिरनूतन रहती है। यह तो भक्त के मन की अतृप्ति ही है कि निरंतर आराधना के बाद भी तृप्ति न हो। अतृप्ति ही तो निरंतर आराधना की प्रेरणा स्थली है। सूरदास की भाषायें-"ज्यों-ज्यों डूबे श्याम रंग, त्यों-त्यों उज्जवल होय" की बात यहां चरितार्थ होती है। भक्ति तो वह शर्करायुक्त रोटी है जहां से भी तोड़ें मीठी ही मीठी लगेगी। भक्त का यह भक्तिभाव का पुनरावर्तन उसकी भक्ति को दृढ़ ही बनाता है। अधिक आस्थावान बनाता है। इस परिप्रेक्ष्य में ज्ञानमती माताजी की भक्ति पुनरार्वतन की भावना व वर्णन योग्य ही है। उनकी भक्ति की यह उत्कृष्टता है। आराध्य के प्रति समर्पण की अभिलाषा है। मन की प्रफुल्लता ही इसमें व्यक्त है।
प्रायः सभी स्तुतियों-वंदना गीतों को पढ़कर उन पर प्राचीन भक्तामर, विषापहार, एकीभाव आदि स्तोत्रों का प्रभाव दृष्टिगत होता है। मैं पहले स्पष्ट कर चुका है कि यह नकल नहीं है, पर भक्त का भाव हर काव्य में एक-सा होता है अतः रचना में साम्यता होना स्वाभाविक है। आराध्य के रूप, गुण, अतिशय, प्रभाव, शक्ति, भक्ति आदि के वर्णन में यह सब समानतत्त्व है, कविता का माध्यम भी समान है अतः यह सामान्य गुण होना असमान्य नहीं हो सकता। मुझे तो लगा कि एक बार पुनः मानतुंग की भक्ति सजीव होकर प्रवाहमान हो उठी है।
इस कृति में बारह भावना को नए ढंग से प्रस्तुत किया है। यद्यपि साधक इन्हीं द्वादश अनुप्रेक्षा भावनाओं का निरंतर चिंतन करे तो वह आत्म चिन्तक बनकर मुक्ति की ओर अग्रसर हो सकता है। संसार के धन वैभव, कुटुम्ब, परिवार, अरे! यह देह कुछ भी तो मेरा नहीं। कर्म इस आत्मा को निरन्तर कष्ट दे रहे हैं उनका क्षय करना है। मैं अकेला ही जन्मा हूँ अकेला ही मरना है। मैं स्वयं परमात्मस्वरूप हूँ। यह चिंतन बढ़ाकर धर्म को ही आश्रय बनाता है उसके ही आश्रित बनना है। यही भावनाएं कविता में बड़े ही भावपूर्ण ढंग से प्रस्तुत हुई हैं।
"मेरी आत्मा से भिन्न सभी, किंचित् अणुमात्र न मेरा है। मैं सबसे भिन्न अलौकिक हूँ, बस पूर्ण ज्ञानसुख मेरा है। मैं अन्य सभी पर द्रव्यों से, सम्बन्ध नहीं रख सकता हूँ। वे सब अपने में स्वयं सिद्ध मैं निज भावों का कर्ता हूँ।"
"जो भव समुद्र में पतित जनों, को निज सुख पद में धरता है। है धर्म वही मंगलकारी, वह सकल अमंगल हर्ता है। यह लो में है उनम सबमें औ वही शरणतै सब जन को।
निज धर्ममयी नौका चढ़कर, मैं शीघ्र तिरूँ भव सिंधू को।" पूज्य माताजी के साथ जो भी इस भक्ति की नौका में आरूढ़ होगा वह निश्चय से भवसागर से पार होने की संभावनाओं को प्राप्त कर सकेगा। ऐसी रचनाएं हमें भक्ति-ज्ञान और काव्य की त्रिवेणी में अवगाहन कर पवित्र बनाने में सक्षम होती हैं।
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