________________
४९८]
वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला
अब प्रश्न उठता है कि इस महामंत्र में ऐसा क्या है, जो सर्वसिद्धि प्रदाता बन जाता है।
मंत्र क्या है? कुछ वर्षों का समाहार । वर्ण क्या है? जिसे हम अक्षर कहते हैं। अक्षर का अर्थ है जिसका क्षय नहीं हो। लिपि बदलती है, भाषा बदलती है, पर ये अक्षर नहीं बदलते, ये ध्वनि रूप में नित्य हैं। नाद-ध्वनि या अक्षर रूप में स्वयं को अभिव्यक्त करता है। ब्रह्मा अक्ष-माला के रूप में इन अक्षरों को धारण करते हैं। नाद अब नाभिकमल से उठकर अनाहत चक्र को अतिक्रम करता हुआ कण्ठ में आकर आहत होता है तो ये अक्षर बन जाते हैं। जो प्रथम अक्षर या ध्वनि हम प्राप्त करते हैं वह है "अ"। यह आद्य अक्षर है, समस्त वर्गों का मूल । वेदान्ती इसे सगुण ब्रह्म कहते हैं। इसी सगुण ब्रह्म से जगत् विस्तृत होता है। पाणिनी ने अपनी अष्टाध्यायी में बताया है कि किस प्रकार जगत् विस्तृत होता है और किस प्रकार वह समेटा जाता है, इसीलिए तो व्याकरण को अपवर्ग या मोक्ष का द्वार कहा गया है।
इस महामंत्र के दो पहलू हैं; एक ध्वनि, दूसरा अर्थ। आप जब "ह्रीं" मंत्र का जाप करते हैं तो उसके उच्चारण से आपके आज्ञा चक्र में जो "ह" बीज है, वह स्पंदित होता है और स्पंदित होने का अर्थ है कि वह आपके जीवन में प्रभावदायी हो जाता है। अन्य वर्ण जो आपके चक्रों में हैं, जो कि आपकी आत्मा को मलिन कर रहा था, उसे दबा देता है, पर इसके साथ-साथ अर्थ भावना भी होनी चाहिए कि मुझे शुद्ध आत्म-स्वरूप को प्राप्त करना है और उसी के अनुरूप करना है अपने जीवन का निर्माण । यदि आपकी यह भावना नहीं है तो "ह" स्पंदित होने पर भी अंकुरित नहीं हो पायेगा। वह तो होगा पाषाण में बीज बोने जैसा ।
जिस प्रकार श्रीकृष्ण ने अपने मुख-विवर में माता यशोदा को समस्त विश्व दिखाया था, उसी प्रकार पूज्य आर्यिकारत्न, माताश्री ने आस्य प्रयत्न द्वारा समग्र विश्व ही दिखाया है। कारण, समस्त वर्ण जिसमें जगत् बनते हैं, वह है मुखविवर । हम णमो का अर्थ समझ लें। हम अपने जगत् “ण” को "म" में लय करके “ओम” हो जाएं “ओम् हो जायेगा ॐ । बस आप तब उत्पाद व्यय धौव्य को देखते हुए आनंद से अभिसिंचित हो जायेंगे। पर कहा करते हैं हम जीवन का अंत और जगत् का लय । क्या हमने वस्तुतः नचिकेता की भांति जीवन की बाजी लगाकर कभी यम का द्वार खटखटाया है कि मैं आत्मा को जानना चाहता हूँ, सिवाय इसके और कुछ भी नहीं चाहता। तब कहिये हम णमोकार मंत्र को सिद्ध करने की आशा किस धरातल पर कर सकते हैं? आप लाख बार जप करें, कुछ नहीं होगा, होगा तो एक ही “णमो" में हो जायेगा।
प्रथम कथानक में सुदर्शन सेठ की नगर देवता ने आकर जल्लादों से रक्षा की। इसी सेठ को राजा ने शूली पर चढ़वाया। महामंत्र के स्मरण से शूली सिंहासन बन गयी। आत्मा की महामंत्र पर श्रद्धा उसे अमर कर गई। वृषभदास सेठ के घर सुदर्शन कुमार जैसा यशस्वी कीर्तिमान पुत्ररत्न हुआ। वह सुदर्शन कुमार ग्वाला की ही पर्याय से आया था।
अंजन से निरंजन कैसे बना? वारिषेण आकाशगामिनी विद्या सिद्ध कर रहा था, परन्तु मन की शंका उसे उद्वेलित कर रही थी। अंजन को सेठ जिनदत्त ने अपना मंत्र दिया, ताकि मंत्र की परीक्षा हो जाये, परीक्षा ने ही अंजन को अवबंधन से मुक्त कर दिया। अंजन चोर का उदाहरण तो निःशंकित अंग में भी समंतभद्र स्वामी ने रखा है, इसीलिए यह कथा अत्यधिक प्रसिद्धि पा चुकी है। निःशंकित अंग के बिना कोई भी कार्य सिद्ध नहीं होता, न ही उसके बिना सम्यक्त्व मोक्ष को प्राप्त कराने में समर्थ होता है।
अंजन की कहानी से मातुश्री का उद्बोधन है कि हम अनंत से अपरिचित हैं। अनंत से अपरिचित होने का अर्थ अपने आपसे अपरिचित होना है। हमारा अस्तित्व अनंत है, किन्तु हम शरीर की सीमा में बंदी हैं, इसलिए अपने आपको ससीम महसूस करते हैं। शरीर की सीमा के दो प्रहरी हैं अहंकार और ममकार । अहंकार समानता के सत्र को काट देता है। ममकार विजातीय में सजातीय की भावना भर देता है। असीम का बोध अनन्त की अनुभूति द्वारा होता है। उसके साधन हैं संयम, तप, ध्यान, मंत्र और तंत्र । मंत्र की अचिन्त्य शक्ति है। मंत्र प्रतिरोध शक्ति भी है और चिकित्सा भी है। अहं के विसर्जन और ममत्व के विसर्जन की पद्धति है, प्रक्रिया है। अनन्त की अनुभूति तब तक नहीं होती, जब तक अपूर्णता है । अपूर्णता के तीन लक्षण हैं अज्ञान-मूर्छा-अंतराय विघ्न ।
सुकुमाल मुनि की कथा भी अद्वितीय है। श्रीमुनि गुणधराचार्य चातुर्मास में उज्जैन नगरी में सुकुमाल के बगीचे में निवास करते हैं, वे उनके मामा थे। वे जानते थे कि सुकुमाल की आयु के बस तीन दिन बाकी हैं और सुकुमाल के आत्म कल्याण की घड़ी आ गई है।
मुनि श्री ने उच्चस्तर से लोक प्रज्ञप्ति का पाठ करना शुरू कर दिया, सुकुमाल की नींद टूटी, नींद क्या टूटी बस, भवकथानक की कड़ियाँ टूटने लगी, उन्हें जाति स्मरण हो आया कि पिछले भव में महर्द्धिकदेव रहकर भी तो अतुल वैभव भोगकर भी तृप्ति नहीं हुई थी तो अब इस तुच्छ वैभव से क्या तृप्ति हो सकती है, इतना सोचते-सोचते तो अनेकानेक भवों की स्मृतियाँ अनवरत चलचित्र की भाँति घूमने लगी, उन्हें वैराग्य हो गया । वे तन, मन
और समाज के कारागार से मुक्त होकर जैन दिगम्बर मुनि हो गये। अब परिषह का समय आया, सुकुमाल की परीक्षा का समय, एक सियारनी अपने बच्चों के साथ अपने पूर्वभव के प्रतिशोध कर उनके शरीर को खाती है और उनके प्राण पखेरू उड़ जाते हैं। फलस्वरूप अच्युत् स्वर्ग में उनकी आत्मा आश्रय पाती है।
जीवन में नैसर्गिक प्रवृत्तियाँ भी होती हैं और आत्मोपलब्धि की अनन्त संभावनाएं भी, बात यह है कि हम इन दोनों में से कौन-सा मार्ग चुनते हैं। हमने अपने मन-मस्तिष्क को कहाँ बैठाया है? शरीर एक माध्यम/साधन है साध्य नहीं। यह एक जटिल मंत्र है, इसे गहरे में जानना-समझना अत्यन्त आवश्यक है। हम ध्यान द्वारा इसे समझ सकते हैं, मूल्यांकन कर सकते हैं। मानव देह मात्र देह नहीं है, वह ब्रह्माण्ड की सम्पूर्ण उदात्त शक्तियों का
Jain Educationa international
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org