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वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला
हुआ हो वह लेखनी सौ-दो सौ ग्रन्थों में भला कैसे थक सकती है। यदि प्रकृति द्वारा प्रदत्त नींद, क्षुधा, शारीरिक व्याधियाँ आदि उन्हें किसी कारणवश प्राप्त न हुई होती तो इस लघु जीवन में वे एक हजार आठ ग्रन्थ भी अवश्य अपनी लेखनी से प्रसूत करतीं, इसमें कोई सन्देह नहीं है।
"जिनसहस्रनाम मन्त्र" की इस लघुकाय कृति को दीर्घकाल पश्चात् अब दिगंबर जैन त्रिलोक शोध संस्थान हस्तिनापुर ने अपनी "वीरज्ञानोदय ग्रंथमाला" द्वारा प्रकाशित कर पुनरुद्धार किया है। ३७ वर्षों के पश्चात् प्रकाशित होने वाले इस संस्करण में पूज्य माताजी ने सहस्रनाम के १००८ मंत्रों के पश्चात् सहस्रनाम पूजा और सहस्रनामव्रतविधि भी पृ. १९ से २७ तक दी है।
पृ. २८ पर प्रतिष्ठा तिलक ग्रन्थ से सरस्वती स्तोत्र उद्धृत किया है। इस स्तोत्र में सरस्वती माता को वस्त्राभरणों से अलंकृत कर उसे श्रुतदेवी की संज्ञा प्रदान की है। इसके आगे सरस्वती के १०८ नाम मंत्र देकर स्वरचित सरस्वती पूजा दी है। पुस्तक के अन्त में ज्ञानपचीसी व्रत विधि देकर ज्ञानपिपासुओं पर महान् उपकार किया है।
जहाँ सहस्रनाम मंत्रों का पाठ ज्ञान की अपूर्व शक्ति प्रदान करता है, वहीं सरस्वती के १०८ नाम मंत्र कंठ में सरस्वती का वास कराते हैं। ज्ञान-पचीसी व्रत में मात्र २५ उपवास या एकासन करने होते हैं तथा ११ अंग, १४ पूर्वो से सम्बन्धित २५ जाप्य हैं। प्रत्येक व्रत में उनमें से एक-एक जाप्य की जाती है। परीक्षा में प्रथम श्रेणी प्राप्त करने के इच्छुक तथा शिक्षा के क्षेत्र में दिन दूनी रात चौगुनी वृद्धि की इच्छा से जो बालक-बालिकाएं सहस्रनाम एवं सरस्वती के नाम मंत्रों का पाठ करेंगे वे नियम से मनवांछित फल की प्राप्ति करेंगे।
___ संस्कृत के सहस्रनाम स्तोत्र पाठ की परम्परा उच्चारण की कठिनता के कारण आज लगभग समाप्त-सी हो गयी है। अतः मुझे विश्वास है कि इस सहस्रनाम मंत्र पुस्तक से पुनः जनसामान्य में नई आशा का संचार होगा क्योंकि अत्यंत सरल एवं लघु मंत्रों ने जब अपना अप्रतिम अतिशय ज्ञानमती माताजी में दिखाया है तब हम सबको भी अवश्य उसका लाभ प्राप्त होगा, इसमें कोई सन्देह नहीं।
पूज्य माताजी की यह ३६ पृष्ठों में पुनः प्रकाशित प्रथम कृति सहस्रों वर्षों तक पृथ्वीतल पर जीवन्त रहे तथा यह सहस्रनाम मंत्र सहस्रों जिह्वाओं को पवित्र करे, यही जिनेन्द्र भगवान से प्रार्थना है।
सोलहभावना
समीक्षक - डॉ० भागचन्द्र जैन भास्कर, नागपुर
मानवीय क्षमता की प्रकर्षता
भावनायें व्यक्ति के भावात्मक अस्तित्व की सूचनायें देती हैं जिसमें स्थायी भाव के रूप में शान्ति और अहिंसा की सूचना देने वाला आत्मतत्त्व मौजूद है। स्वतन्त्रता और स्वावलम्बन ही यथार्थ सुख है। स्वानुभूति के माध्यम से राग-द्वेष रूप विकारी भावों को दूरकर साहसपूर्वक संघर्षों का सामना कर स्व-पर प्रकाशक भेदविज्ञान को जाग्रत करता है और पाता है शुभोपयोग और शुद्धोपयोग के उस पुनीत मार्ग को जो परमात्म स्थिति तक संसारी को पहुंचा देता है।
मनुष्य गिरगिट स्वभावी है, अनेक चित्त वाला है। इन्द्रिय, मन, चित्त या बुद्धि के माध्यम से उसके व्यक्तित्व को परखा जा सकता है। इन तीनों तत्त्वों को संयमित रखना और पर की ओर न झांकने देना, स्व-पर के चिन्तन में स्वयं को समर्पित कर देना एक ऐसा अहिंसक उपाय है जिससे सभी उपाधियां, दुःख व्याधियां दूर हो जाती हैं और वस्तुनिष्ठ चिन्तन का प्रारम्भ हो जाता है। दश धर्मों के अनुपालन के बाद भावनाओं के
अनुचिन्तन से साधक मानवीय क्षमता की प्रकर्षता को पा जाता है। मानवीय क्षमता का दिग्दर्शक है तीर्थंकर पद, जो परिपूर्णता, पवित्रता, अहिंसात्मकता और कारुणिकता का संदेशवाहक है। तीर्थकर एक अनुपम आध्यात्मिक महासन्त होते हैं जो संसार में रहते हुए भी पूर्ण वीतरागी बनकर प्राणियों को सन्मार्ग दिखाते हैं। वे संसार के दुःख-दर्द को दूर करने का यथार्थ पथ प्रदर्शित करते हैं और निर्मित कर देते हैं ऐसा चौड़ा रास्ता जिस पर सभी लोग बिना किसी भेदभाव के चल सकें और आनन्दपूर्वक अपनी वास्तविक सुखद मंजिल को पा सकें।
जैनधर्म में तीर्थंकर बनने के लिए सोलह भावनाओं को माना और उनमें गहराई से तन्मय हो जाना एक अटूट शर्त है। इसे जैन दार्शनिक शब्दावली
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