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गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ
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प्रत्येक आत्मा अनादिकाल से कर्मों से बंधी हुई है, जो पुरुषार्थ के बल से परमात्मा बन जाती है। ऐसे अनन्तों परमात्मा हैं और संसारी जीन राशि भी अनंत हैं।
आत्मा के बहिरात्मा, अंतरात्मा और परमात्मा भेद.करके इन तीनों का विवेचन किया गया है। मोक्ष मार्ग, कर्म सिद्धान्त तथा सम्यक्त्व का लक्षण बतलाते हुये चरित्र की प्राप्ति के कारणों को बतलाया गया है। मुक्त हुए जीवों का स्थान, उसकी अवगाहन संख्या और सिद्ध का वर्णन व भगवान के गुणों का निरूपण किया गया है।
इस प्रकार चारों अनुयोगों के सम्पूर्ण संक्षिप्त विवरण को संजोये हुये यह ग्रन्थ जैन धर्म की एक अमूल्य निधि बन गया है। गागर में सागर भर लेने के पश्चात् भी हर संदर्भ में पूर्ण यह ग्रन्थ अपने आप में अनूठा है।
जैन दर्शन का सम्पूर्ण एवं सटीक ज्ञान न होने पर जिज्ञासु आगे नहीं बढ़ सकता बल्कि भटकने का खतरा है। अतः द्रव्यानुयोग जैन दर्शन को स्पष्ट एवं सुबोध बनाकर व्यक्ति को उसके उद्देश्य की प्राप्ति के लिये मार्ग प्रशस्त करता है।
इतने महत्त्वपूर्ण और हर जिज्ञासु के लिये आवश्यक यह ग्रन्थ हर व्यक्ति के द्वारा खरीद कर घर में पहुंचे तो इस ग्रन्थ की रचना में किया गया श्रम अधिक सार्थक हो सकेगा।
जैनधर्म, तीर्थंकरत्रय पूजा एवं जम्बूद्वीप मंडल विधान
समीक्षक-डॉ. प्रकाश चन्द्र जैन, तिलकनगर, इंदौर (म.प्र.)
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मैना से माताजी तक छ: दशकों की साधना यात्रा की एक लम्बी कहानी है। अपने जीवन के अट्ठावन में से अड़तीस मधुमास, माँ शारदा की उपासना में लगाकर उन्होंने डेढ़ सौ से भी ऊपर ग्रंथ लिखे। उनकी यह साधना ही उनका परिचय है। उन्होंने चारों अनुयोगों पर लेखनी चलाकर, हिन्दी, संस्कृत, कन्नड़ आदि भाषाओं में दर्शन और चारित्र पर ही नहीं, उपन्यास एवं बालोपयोगी साहित्य का भी सृजन किया, जो प्रकाश स्तम्भ बनकर सदैव हमारे जीवन को आलोकित करता रहेगा।
ग्रंथ का प्रारंभ णमोकार महामंत्र के मंगलाचरण से करते हुए सबसे पहले लेखिका ने-कारातीन् जयति इतिजिनः" लिखकर जिनकी परिभाषा दी। ऐसे जिन जिनके आराध्य हैं।
आगे धर्म को परिभाषित करते हुए वह लिखती हैं-संसार दुःखतः सत्वान् यो उत्तमे सुखे धरतीति धर्मः । संसार के दुःखों से जीव को उत्तम सुखों में पहुँचाए वही धर्म है। ऐसे केवली द्वारा प्ररूपित धर्म- "केवली पण्णत्तो धम्मो" अर्थात् जैन धर्म की मूलभूत बातों, काल परिवर्तन से लेकर आत्मा को परमात्मा बनाने का उपाय आदि का वर्णन इस पुस्तक के चार परिच्छेदों में किया गया है।
प्रथम परिच्छेद, 'षट्काल-परिवर्तन' में उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी कालों के छः-छः भेदों का परिचय देते हुए कुलकरों की उत्पत्ति के साथ-साथ तीर्थंकर ऋषभदेव और भरत का परिचय, तीर्थंकरों के शरीर की अवगाहना तथा हुण्डावसर्पिणी काल की विशेषताएं आदि का परिचय तिलोयपण्णत्ति पुराण के आधार पर दिया है।
द्वितीय परिच्छेद, 'सामान्य लोक' में लोक का सामान्य परिचय है, लोक और मनुष्य के संबंधों को लेकर अनवरत चली आ रही ऊहापोह के बाद भी वैज्ञानिक, अभी तक किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुंचे हैं। आखिर कब तक हम यह रोना रोते रहेंगे-'हम तो कबहुं न निज घर आये' हमारे ये प्रश्न मैं हूँ कौन, कहाँ ते आये। कौन हमारो ठौर" कब तक अनुत्तरित रहेंगे। असल में इन प्रश्नों का उत्तर विज्ञान के पास है ही नहीं। दर्शन ही इन प्रश्नों के उत्तर दे सकता है। संस्कृत की लोक धातु के साथ 'घ' प्रत्यय के संयोग से निष्पन्न लोक शब्द का अर्थ है-“दर्शन" । जैन भूगोल भूगोल न होकर जीवन दर्शन है। वह निजघर की स्थिति बोध का दर्शन है। तभी तो जैनाचार्यों का अनुसरण करते हुए पू. माताजी ने भी इस परिच्छेद में लोक का खुलासा करते हुए मध्यलोक, ढाईद्वीप, भोगभूमि व कर्मभूमि, नन्दीश्वरद्वीप आदि का परिचय देते हुए गति परिवर्तन में नरकादि गतियों का अच्छा वर्णन किया है।
तृतीय परिच्छेद, 'मोक्षप्राप्ति के उपाय' अन्तर्गत, सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र में सकल व निकल चारित्र के अन्तर्गत अणुव्रत. महाव्रत, षट् आर्यकर्म, दशधर्म, सोलह कारण भावना आदि का अच्छा वर्णन किया है।
चतुर्थ एवं अंतिम परिच्छेद 'छहद्रव्य' के अंतर्गत जीवादि द्रव्यों, उनके प्रदेशों की संख्या, अस्तिकाय, सातत्त्व, पुण्य, पाप, आत्मा की बहिंगम आदि तीन अवस्थाओं का सटीक वर्णन किया है।
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