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वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला
'मैं स्वयं आत्मा हूँ' का उद्घोष हमारी स्वतंत्र सत्ता, आत्मा का शरीर से निलेपभाव एवं स्वयं भगवान् बन सकने की आस्था का परिचायक भाव है। जो आर्यिकाजी ने बड़े ही उत्तम शब्दों में व्यक्त किया है। पूरी स्तुति इसी आत्मा की स्वतंत्र, निश्चल, निष्काम, अनंत, अखण्ड, प्रकाशवान, देहातीत स्थिति की परिचायक है। एक उदाहरण देखिए
"मैं नित्य निरंजन परं ज्योति, मैं चिच्चैतन्य चमत्कारी । मैं ब्रह्मा विष्णु महेश्वर हूँ, मैं बुद्ध जिनेश्वर सुखकारी॥ मैं ही निज का कर्ता धर्ता, मैं अनवधि सुख का भोक्ता हूँ।
मैं रत्नत्रय निधि का स्वामी, अगणित गुणमणि का भर्ता हूँ॥ परिषह मनुष्य की आत्मा को निखारते हैं। साधु उन्हें सहकर और भी दृढ़ बनता है। यह भाव इस कविता में यत्र-तत्र व्यक्त हुए हैं। मेरा आत्म स्वभाव तो दशलक्षण युक्त धर्मों से आवेष्टित है। क्रोध आदि तो परभाव हैं। उन्हें दूर करके ही इसे पुनः चमकाना है
"मैं क्षमा मूर्ति हूँ गुण ग्राही, क्रोधादि पुनः कैसे होंगे? मैं इच्छा रहित तपोधन हूँ, फिर कर्म नहीं क्यों छोड़ेंगे? मैं आर्तरौद्र से रहित सदा, हूँ धर्म शुक्ल ध्यानी ज्ञानी। मैं आशा तृष्णा रहित सदा, हूँ स्वपर भेद का विज्ञानी ॥ मैं निज के द्वारा ही निज को निज से निज हेतु स्वयं ध्याकर ।
निज में ही निश्चल हो जाऊँ, पाऊँ स्वात्मैक सिद्धि सुन्दर ॥ कितनी सुन्दर व उच्च भावना है कि स्वयं को सर्वकर्ममल से मुक्त करके स्वयं में निश्चल हो जाना। आवागमन से मुक्ति पाना । मृत्यु के भय से भी आत्मध्यान से विचलित न होने की दृढ़ता के स्वर इस भक्ति गीत का मूल स्वर बन गया है। कर्मरूपी बाह्य रजकणों को क्षय करना ही तो मेरा लक्ष्य हो। जो भी इस प्रकार की आत्मसाधना में लीन होता है, वही आनंद रस चख सकता है
"इस विध एकाग्रमना होकर, जो निजगुण कीर्तन करते हैं। वे भव्य स्वयं अगणित गुणमणि, भूषित शिवलक्ष्मी वरते हैं। वे निज में रहते हुए सदा, आनंद सुधारस चखते हैं।
आर्हन्त्य श्री 'सज्ज्ञानमती' पाकर निज में ही रमते हैं।" ४५ चतुष्पदी की यह भक्ति सरिता कवयित्री के भाव और भक्ति की उत्तम कृति है। पूरी स्तुति पढ़ने से व्यक्ति अपने सच्चे आत्म स्वरूप को परख सकता है-निरंतर आराधना से आत्ममय बन सकता है।
जिनस्तवनमाला (चतुर्विंशतिजिनस्तुतिः)
जिन स्तवन माला
समीक्षक-डॉ० शेखरचन्द्र जैन, अहमदाबाद आर्यिका गणिनी ज्ञानमतीजी संस्कृत साहित्य की अधिकृत विदुषी हैं। भाषा के ज्ञान का उत्तम स्वरूप होता है काव्य-रचना। भाषा की प्रांजलता इसी विधा में झलकती है। माताजी ने अनेक वंदना, स्तुति, तीर्थ स्तुति आदि रचनाएं उत्तम संस्कृत शब्दावली में की हैं। उनकी उन कृतियों को पढ़कर, जिनकी रचना संस्कृत में की है और स्वयं उसका भावानुवाद भी किया है। मेरा यह अवलोकन रहा है कि संस्कृत का काव्यवैभव हिन्दी में उस सक्षमता से कम उतरा है, जितना काव्यवैभव मूल संस्कृत रचनाओं में है।
इस भक्ति प्रचुर कृति में चौबीस तीर्थंकर की स्तुति चौबीस पदों में उत्तम संस्कृत के उपजाति छन्द में की है। हर शब्द उनके अन्तर की भक्ति से समर है। आराध्य के चरणों में नतमस्तक वे उनकी भक्तिप्रसाद की चाहना करती रही हैं।
समुच्चय चौबीस तीर्थंकरों की स्तुति के उपरांत संग्रह में श्रीचन्द्र प्रभस्तुतिः श्री शांतिजिनस्तुतिः, उपसर्गविजयि श्री पार्श्वनाथ जिनस्तुतिः, श्री पार्श्वनाथ जिन स्तुतिः, श्री वीरजिनस्तुतिः, शांतिभक्ति एवं बारह भावना का समावेश है। बारह भावना के अलावा सभी स्तुतियों व शांतिभक्ति की रचना मूल संस्कृत में की है। स्वयं उसका हिन्दी पद्यानुवाद भी प्रस्तुत किया है।
चरमशरीरी तप के तेज से दैदीप्यमान तीर्थंकर प्रभू को शांत, सौम्य मुद्रा भक्त के आकर्षण का केन्द्र
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