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गोम्मटसार
कर्मकाण्ड सार
गोम्मटसार
कण्ड सार
L
गुणस्थान
मिध्यात्व
सासादन
मिश्र
असंयत
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वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला
गोम्मटसार जीवकाण्ड सार एवं कर्मकाण्ड सार
समीक्षक - डॉ. पारसमल अग्रवाल
आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती द्वारा रचित गोम्मटसार ग्रंथ के प्रति जैन समाज में यह धारणा है कि यह एक अति कठिन ग्रंथ है माताजी ने उक्त ग्रंथ के जीवकाण्ड से १४९ गाथाएं चुनकर १५८ पृष्ठों का ग्रंथ जीवकाण्डसार रचा है। इस ग्रंथ में इन गाथाओं के अर्थ, भावार्थ एवं आवश्यक टिप्पणी के साथ प्रत्येक अध्याय का सारांश भी दिया है। इसी प्रकार गोम्मटसार के कर्मकांड की १३३ गाथाएं चुनकर ११० पृष्ठों का ग्रंथ गोम्मटसार कर्मकाण्डसार रचा है।
कर्म प्रकृतियों के बंध, अबंध, उदय, सत्ता, बंध व्युच्छित्ति आदि की गाथाओं में वर्णित जानकारी को ४७ कोष्ठकों (Tables) के माध्यम से भी कर्मकांडसार में व्यक्त करके माताजी ने पाठकों की कठिनाई बहुत कम कर दी है। कोष्ठक की एक झलक दिखाने हेतु यहाँ कोष्ठक क्र. ४७ का अंश प्रस्तुत है
इन दोनों ग्रंथों को पढ़ने के बाद मैं यह पाता हूँ कि माताजी ने एक महान् एवं अत्युपयोगी कार्य किया है । इनके माध्यम से एक तरफ नये जिज्ञासुओं को गोम्मटसार पढ़ने का सरल मार्ग मिला है तो दूसरी तरफ विस्तृत गोम्मटसार पढ़े हुए विद्वानों को भी कम समय में ही पुनरावृत्ति करने का अवसर मिल सकेगा। इनके अतिरिक्त कई गाथाओं पर माताजी की व्याख्याएं एवं विचार भी जानने का अवसर पाठकों को इन ग्रंथों के माध्यम से मिल सकता है।
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असत्व
सत्व
१४८
१४५
१४७
१४८
जीवकांडसार में मुख्यतया २० प्ररूपणाओं
१ गुणस्थान, २ पर्याप्ति, ३ प्राण ४ संज्ञा, ५-१९-१४ मार्गणा एवं २० उपयोग का वर्णन २० अध्यायों में हुआ है।
सत्व व्युच्छिति
०
आज समाज में चारित्र व अचारित्र के नाम पर बहुत भ्रांतियां फैली हुई हैं। माताजी ने इन दोनों ग्रंथों में गाथाओं का संकलन निष्पक्ष भाव से किया है। एक तरफ जीवकाण्डसार में चारित्र प्रधान छठे, सातवें, आठवें और नवमें गुणस्थान का विस्तृत वर्णन परिशिष्ट के रूप में किया है तो दूसरी तरफ मोक्षमहल की प्रथम सीढ़ी यानि असंयत या अविरत सम्यग्दर्शन यानि चतुर्थ गुणस्थान का महत्त्व एवं स्वरूप स्थान-स्थान पर बताया है। कर्मकांडसार में
| पृष्ठ ३१ पर गांधा ३२ एवं ३३ में स्पष्ट किया है कि असंयत सम्यग्दृष्टि (चतुर्थ गुणस्थान) के भी तीर्थंकर प्रकृति का पुण्य बंध हो सकता है एवं पृष्ठ- ३७ पर गाथा- ४६ में चतुर्थ गुणस्थान वाले नरक के जीव के भी तीर्थंकर प्रकृति के बंध की संभावना उजागर करके चतुर्थ गुणस्थान का महत्व प्रतिपादित किया है। स्वतंत्र रूप से भी जीवकांडसार में पृष्ठ- १२४ पर सम्यग्दर्शन की महत्ता को अध्याय-१७ के उपसंहार के रूप में माताजी लिखती है
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"णो इंदियेसु विरदो णो जीवे धावरे तसे वापि । जो सहहृदि जिगुतं सम्माइट्ठी अविरदो सो ॥"
विशेष
"एक बार जिस जीव को सम्यग्दर्शन हो जाता है, वह जीव नियम से मोक्ष को प्राप्त करता है। कम से कम अन्तर्मुहूर्त में और अधिक से अधिक अर्ध पुद्गल परावर्तन काल तक वह संसार में रह सकता है। इसलिए करोड़ों उपाय करके सम्यक्त्व रूपी रत्न को प्राप्त करने का प्रयत्न करना चाहिए।"
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३ (आहारकद्विक, तीर्थंकर)
१ (सीर्थंकर)
१ (नरकायु)
चतुर्थगुणस्थान के असंयम का स्वरूप जीवकाण्डसार में पृष्ठ- १०१ पर गाथा - १०८ में बताया है एवं इसी ग्रंथ में पृष्ठ १२ पर गाथा - १३ में इसका स्वरूप निम्रानुसार है
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