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गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ
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श्रीवीरजिनस्तुति
समीक्षक-डॉ० शेखरचन्द्र जैन, अहमदाबाद स्तुति साहित्य भक्ति की कोमलतम भावनाओं का प्रस्तुतिकरण होता है। फिर कोई मोक्षपथ का पथिक हो... तो उसकी भक्ति भावना का क्या पूछना? आर्यिका महाव्रती इसी पथ की पथानुगामिनी हैं; अतः उनकी स्तुति, प्रार्थना में भक्ति की धारा का प्रवाहित होना स्वाभाविक ही है।
भगवान् महावीर के शासन में उनकी पूजा अर्चा, वंदना, गुणगान गाने का सौभाग्य हमें मिला है। उन्हीं वीरप्रभु के २५०० वें निर्वाणोत्सव पर यह स्तुति गीत श्रद्धा-भक्ति सुमन के रूप में अर्पित किया है। यह कवयित्री की काव्यांजलि है तो भक्त की भावांजलि भी है।
लघु पुस्तिका में मात्र ३६ चतुष्पदियों में महावीर के जन्म आदि पंचकल्याणक, उनके अतिशय, तत्कालीन युगीन परिस्थितियां, उनकी जगत् उद्धारक वाणी, करुणा, क्षमा, स्याद्वाद, समता आदि के संदेश का समावेश कर दिया है। सिद्धहस्त कवयित्री का काव्य सौष्ठव इस स्तुति की विशेषता है। संस्कृत गर्भित तत्सम पदावली सर्वत्र द्रष्टव्य है।
"दुरित पंक से पंकिल पृथ्वी, कीच सहित सर्वत्र अहो! केवल ज्ञान सूर्य किरणों से, सदा सुखाते रहते हो!"
उनके गुण देखिए"महामोह व्याधि नाशन को, वैद्य मदनभट विजयी हो, ईर्ष्या मान असूया विजयी, त्रिभुवनसूर्य मुक्ति पति हो। भव समुद्र में पतित जनों को, अवलंबन दाता तुम ही,
करूँ संस्तुति सदा वीर प्रभू, की मुझको दीजे सुमति ॥ कवयित्री की उपर्युक्त दो पंक्तियों में श्री मानतुङ्गाचार्य के भक्तामर की भाव छाया ही उतर पड़ी है। देखिए आराध्य के प्रति भावविभोर होकर विशेषणों की झड़ी लगा दी
"वीतराग! हे वीतद्वेष! हे वीतमोह! हे वीतकलुष । हे विजिष्णु! हे भ्राजिष्णु! हे विजितेन्द्रिय! हे स्वस्थ सुचित्त! सदानंदमय ज्ञानी ध्यानी जग में परम ब्रह्म भगवान,
भक्ति से मैं करूं वंदना मेरा मन पवित्र हो जिन!" जन्मोत्सव का वर्णन भी बड़ा मनोहारी है। समवशरण में बैठे प्रभु का सौन्दर्य देखिए
"समवशरण में द्वादश परिषद, मध्यरत्न सिंहासन पर,
चतुरंगुल के अंतराल से, शोभें प्रभू राशि सम सुंदर। इस स्तुति की दूसरी विशेषता है साध्वीजी की इस भवबंधन से छूटने की अभिलाषा। वे निर्भीक होकर अपने सांसारिक कृत्यों के प्रति प्रायश्चित्त के भाव भी व्यक्त करती हैं। यह तो परम सौभाग्य है कि तीर्थंकर प्रभू की वंदना, पूजा आराधना का अवसर मिला-अंतिम इच्छा तो मृत्यु को महोत्सवपूर्ण प्राप्त करने की है
"जन्म-मरण से तथा विविध, रोगों से पीड़ित भव वन में, कुमरण के ही कारण जिनवर! दुखी हुआ तनु घर-घर मैं। आज कदाचित दुर्लभता से, जिन! तब धर्म को पाया है, अंत समय में श्रेष्ठ समाधि, होवे यही याचना है। हे प्रभू! मेरे मरण समय में, मोक्ष कषायें प्रकट न हो। रोग जनित पीड़ा नहिं होवे, मूर्छा आशा भी नहिं हो।
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