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वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला
यथा स्थान संदर्भग्रंथों के उद्धरण प्रस्तुत करके गद्य जैसी शुष्क विधा में लिखी इस कृति को सरस और सरल बना दिया है। लेखिका के ग्रंथों की सूची देकर सम्पादक मंडल ने स्तुत्य कार्य किया है। आज ऐसी छोटी-छोटी परिचयात्मक पुस्तकों की भी जरूरत है।
समस्त द्रव्यों का क्रीड़ास्थल 'लोक' धार्मिक भूगोल का विषय है। इसका सीधा संबंध कर्म-सिद्धान्त से है। कर्म ही हमारी लोक यात्रा का नियामक तत्त्व है। स्वर्ग, नरक की व्याख्या, कर्म सिद्धान्त से ही संभव है। दुर्भिक्ष, भूकम्प, अतिवृष्टि, अनावृष्टि, दुर्घटना आदि का उत्तर विज्ञान के पास नहीं, धर्म अध्यात्म के पास है। कमोंदयजन्य इन सारे प्रकोपों की ही नहीं, कर्म के ही सर्वथा अभाव की युक्ति भक्ति है, तभी तो आचार्य पूज्यपाद जिन भक्ति को मोक्ष का कारण बताते हुए कहते हैं जिनेभक्तिर्जिनेभक्ति जिनभक्ति सदास्त मे सम्यक्त्वमव संसारवारणं मोक्ष कारणं ॥ अर्थात् मुझमें जिनेन्द्र की भक्ति का भाव सदा बना रहे, क्योंकि अरहन्त भक्ति ही सम्यक्त्व है और सम्यक्त्व ही संसार परिभ्रमण का नाशक और मोक्ष का कारण है। गृहस्थ के षट् आवश्यक में भी देवपूजा (भक्ति) को प्रथम स्थान प्राप्त है। अध्यात्मवादी जैन दर्शन में परमात्मा की भक्ति, उसे रिझाने के लिए न होकर, अपने आराधक (परमात्मा) के गुणों को प्राप्त करने की भावना से ही की जाती है— बन्दे तद्गुणलब्धये वीतराग परमात्मा को हमारी पूजा या निन्दा से कोई भी प्रयोजन नहीं है, फिर भी श्रद्धापूर्वक की गई भक्ति या गुणस्मरण से हमारे भीतर आने वाली पवित्रता ही हमारा मोक्षमार्ग प्रशस्त करती है
"न पूज्यार्थस्त्वयि वीतरागे, न निन्दया नाथ विवांत वैरे । तथापि ते पुण्य गुणस्मृतिर्नः पुनाति चित्तं दुरितांजनेभ्यः ॥"
- आ. समन्तभद्रवृहद्स्वयंभू स्तोत्र इन तत्त्वों से परिचित लेखिका के तीर्थंकरत्रय पूजा और जम्बूद्वीप मंडल विधान भी भक्ति से संबंधित रचनाएं ही हैं। तीर्थंकर त्रयपूजा
इस छोटी-सी पुस्तक में माताजी द्वारा रचित शांति, कुंथु, अर तीन तीर्थंकरों को पूजा शांतिनाथ, कुंथुनाथ और अरहनाथ की अलग-अलग पूजा, भगवान बाहुबली पूजा के साथ-साथ कुछ आरतियाँ भी संकलित हैं। प्रारम्भ में कु. माधुरी शास्त्री (वर्तमान आर्यिका श्री चन्दनामती) द्वारा किया गया हस्तिनापुर का परिचय तो श्रावक की भक्ति को द्विगुणित कर देता है। अंतिम पृष्ठ पर दी गई माताजी की पुस्तकों की सूची तथा सम्यग्ज्ञान विषयक जानकारी हमें सतत स्वाध्याय की प्रेरणा देती है।
इन पूजाओं में कवयित्री ने अपने लक्ष्य के प्रति सतर्क रहने के लिए भक्त को सदा निज स्वरूप का बोध कराया है, कुछ उदाहरण द्रष्टव्य है।
"मैं शुद्ध बुद्ध हूं सिद्धसदृश, मैं गुण अनन्त के पुञ्जरूप। मैं नित्य निरंजन अधिकारी, चिच्चिंतामणि चैतन्य रूप ॥ निश्चय नय से प्रभु आप सदृश, व्यवहार नयाश्रित संसारी । तव भक्ती से यह शक्ति मिले, निज संपत्ति प्राप्त करूँ सारी ॥ " श्री शान्ति कुंथु अरतीर्थंकर पूजा" चिच्चैतन्य स्वरूप, चिन्मय चिंतामणि प्रभो
शान्तिनाथ पूजा जयमाला
इन उद्धरणों में अलंकारों की स्वाभाविक छटा भी द्रष्टव्य है। कवयित्री की इस कृति में प्रसाद गुण से परिपूर्ण, नरेन्द्र, गीता, रोला, सोरठा, स्त्रग्विणी, वसंततिलका, शिखरिणी, अडिल्ल, सखी और शंभु आदि छंदों का सुंदर प्रयोग किया है।
जम्बूद्वीप मंडल विधान - जम्बूद्वीप क्या है? कहाँ व कैसा है? इस संबंध में प्राचीन वैदिक और श्रमण (जैन एवं बौद्ध वाङ्मय में जगह-जगह विस्त की गई है। आज भी आ. ज्ञानमती, डॉ. राधाचरण, डॉ. प्रो. अली ने तो अपना शोध प्रबंध ही, “पुराणों में वर्णित जंबूद्वीप" विषय पर लिखा . से होता है। समीक्षार्थ प्रस्तुत पुस्तक
। यही नहीं, हमारा प्रत्येक मांगलिक कार्य का प्रारंभ ही इस संकल्प मंत्र - जंबूद्वीपे भरतक्षेत्रे आर्यखंडे 'जंबूद्वीप मंडलविधान' मध्यलोक के प्रथमद्वीप, इसी जम्बूद्वीप के जिनबिम्बों की पूजा से सम्बद्ध है।
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यह ३८६ पृष्ठों की पद्यबद्ध रचना है। प्रारंभिक बीस पृष्ठों के बाद पीठिका से ग्रंथ का प्रारंभ होता है। इसमें कवयित्री ने जंबूद्वीप के अट्ठत्तर शाश्वत जिनमंदिरों की उत्तम मुहूर्त में विधि विधानपूर्वक पूजा का निर्देश दिया है। उसके बाद मंगलाचरण करते हुए सिद्ध परमात्मा, ऋषभदेव, शांतिनाथ, कुंथुनाथ, अनाथ तीर्थंकरों और भगवान् बाहुबली को प्रणाम करके इस विधान की महत्ता बताते हुए कहा है
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जम्बूद्वीप विधान से मिठे उपद्रव रोग इति-भीति सब ही टलें, मिले शीघ्र सब सौख्य ।
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