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गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ
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आध्यात्मिक शांति का उपासक को अनुभव होता है वह अनुभवी ही जानता है। भगवत्भक्ति के प्रसाद से तत्काल तो शांति मिलती ही है उससे पूर्वकाल में संचित पापों का नाश तथा कुछ पाप कर्मों का पुण्य रूप संक्रमण एवं उनकी स्थिति व अनुभाग में कमी भी स्वयमेव सम्पन्न हो जाती है। अतः पू० गणिनी जी ने विधान की रचना पद्यों में की है। इन्होंने इस रचना के सिवाय कल्पद्रुम, इन्द्रध्वज, ऋषिमंडल, त्रैलोक्यमंडल, शान्तिविधान आदि अनेक वृहद् विधानों की रचना कर पूजा साहित्य के भंडार को तो भरा ही है, किंतु प्रथमानुयोग,करणानुयोग, चरणानुयोग एवं द्रव्यानुयोग से संबंधित अन्य डेढ़-दो सौ ग्रन्थों की रचना और अनुवाद कर अपनी बहुआयामी सर्वतोमुखी विलक्षणप्रतिभा का जो परिचय दिया है उससे वे गणिनी होने के अतिरिक्त सरस्वती के रूप में भी वे वंदनीय बन गई हैं।
__ अष्टसहस्री एक बहुत ही दुरूह एवं गंभीर न्याय शास्त्र है। इसका अनुवाद करके आपने अपनी ज्ञानगरिमा से विद्वत् समाज को भी चकित किया है। जम्बूद्वीप और उसमें उत्तुंग विशाल सुदर्शन मेरु की अद्भुत रचना आपकी ही सूझ-बूझ का परिणाम है, जो भविष्य में एक अनूठा ऐतिहासिक एवं देश-विदेश की जनता को दर्शनीय व आदर्श स्थल के रूप में माना जाता रहेगा।
समाज का सौभाग्य है कि ऐसी बाल ब्रह्मचारिणी, आदर्श विदुषी एवं धर्म परायणा निःस्वार्थ समाज सेविका गणिनी आर्यिका श्री इस युग में विद्यमान
जिससे न केवल जैन, प्रत्युत भारतीय समस्त महिला समाज भी गौरवान्वित है। आप चिरकाल तक इसी प्रकार आत्मसाधना एवं तपाराधनापूर्वक धर्म प्रभावना करती रहें इसी सत्कामना के साथ आपके श्री चरणों में नमन करता हूँ।
जिनसहस्रनाम मंत्र
समीक्षिका - आर्यिका चन्दनामती
प्रथम कृति
पूज्य गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी के उत्तुंग वैराग्य पर्वत से अनेकों भक्ति रूपी नदियाँ प्रवाहित हुई हैं जिनमें नान करके आज कितने ही नर-नारी अपने तन-मन-धन को पवित्र कर रहे हैं।
वर्तमान युग में जिनेन्द्र भक्ति ही कर्मों को काटने के लिए अमोघ शस्त्र है, आचार्य श्री कुन्दकुन्द स्वामी जैसे महान् आध्यात्मिक सन्तों ने भी भक्ति को अपने जीवन में स्थान देकर निवृत्ति मार्ग को सुदृढ़ किया है। ___यहाँ हमारा समीक्ष्य पुष्प “जिनसहस्रनाममंत्र" जिनके सृजन से ज्ञानमती माताजी की पवित्र लेखनी को असीमित संबल प्राप्त हुआ है। प्रथमकृति जिनसहस्रनाममंत्र का अदभुत अतिशय
ईसवी सन् १९५३ चैत्र कृ. एकम को श्रीमहावीरजी अतिशय क्षेत्र पर आचार्य श्री देशभूषण महाराज
के करकमलों से क्षुल्लिका दीक्षा ग्रहण करने के पश्चात् क्षुल्लिका वीरमतीजी ने अपने ज्ञान में अतिशयकारी वृद्धि की। सन् १९५५ के जयपुर चातुर्मास में इन्होंने कातन्त्ररूपमाला नामक संस्कृत व्याकरण का अध्ययन किया तथा सन् १९५५ में क्षुल्लिका श्री विशालमती माताजी के साथ "म्हसवड़" महाराष्ट्र में चातुर्मास किया। इस चातुर्मास के मध्य क्षुल्लिका श्री वीरमतीजी ने अपने व्याकरण ज्ञान का सदुपयोग करने के लिए भगवान के एक हजार आठ नाम मंत्रों की रचना की थी, उसी समय विशालमती माताजी की प्रेरणा से उन नाम मंत्रों की छोटी-सी पुस्तक भी प्रकाशित हो गई थी।
पुनः सन् १९५६ में आर्यिका दीक्षा के पश्चात् शायद ज्ञानमती माताजी स्वयं अपनी उस प्रथम कृति को भूल ही गई थीं। उन्होंने सन् १९६५ तक ९ वर्षों के अन्तराल में कुछ संस्कृत स्तुतियों के अतिरिक्त कोई विशेष लेखन कार्य नहीं किया। शिष्य-शिष्याओं को अध्ययन कराने का उस समय आपका प्रमुख लक्ष्य रहा। दिन में लगभग ७-८ घण्टे मुनि-आर्यिकादिकों को अध्ययन कराते तो मैंने सन् १९६९ जयपुर चातुर्मास में स्वयं देखा है। इसी चातुर्मास में आपने अष्टसहस्री ग्रन्थ का हिन्दी अनुवाद कार्य शुरू किया था। उसके पश्चात् तो आज तक डेढ़ सौ से भी अधिक ग्रन्थों का लेखन आपकी शुद्ध प्रासुक लेखनी से हो चका है।
यह विपुल साहित्य सृजन देखकर मुझे यह दृढ़ विश्वास होता है कि जिस लेखनी का श्रीगणेश ही भगवान के एक हजार आठ पवित्र नामों से
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