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गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ
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वे पंचपरिवर्तन मिटाकर पंकल्याणक भरें। निर्वाण लक्ष्मी 'ज्ञानमति' युत पाय निज संपति वरें ।।
(समुच्चय पूजा नं. १, पृ.सं. ५) मुद्रण-साज सज्जा तथा प्रस्तुति-२७० पृष्ठों में मुद्रित इस विधान ग्रन्थ की छपाई एवं साज-सज्जा ग्रंथ के प्रकाशक दिगम्बर जैन त्रिलोक शोध संस्थान, हस्तिनापुर की अपनी परम्परा के अनुरूप है। अतः ग्रन्थ का 'गेट-अप' भी आकर्षक है। प्रारम्भ में पूज्य आर्यिकारत्न गणिनी श्री ज्ञानमती माताजी का मनोहर चित्र दिया गया है। इससे ग्रन्थ का सौन्दर्य और अधिक बढ़ गया है। भाषा पूर्णतः शुद्ध और प्रांजल है। अन्त में तीस चौबीसी विधान का नक्शा रेखाचित्र के माध्यम से बनाया गया है।
विषय का महत्त्व एवं उपयोगिता-प्रस्तुत ग्रन्थ में रचयित्री ने पूजन की जयमालाओं में तिलोयपण्णत्ति आदि ग्रन्थों के आधार से समवशरण विभूति आदि का कहीं-कहीं वर्णन किया गया है। किन्हीं-किन्हीं जयमालाओं में भक्ति-रस विशेष है, किन्हीं में वैराग्य रस, किन्हीं में स्याद्वाद सिद्धान्त वर्णित है तो कहीं नयों की अपेक्षा से अध्यात्म की झलक भक्ति रस समन्वित
स्वमोह बेल को उखाड़ मृत्यु मल्ल को पछाड़। मुक्ति अँगना निमित्त लोक शीश जा बसें ॥ प्रसाद से ही आपके अनन्त भव्य जीव राशि। आपके समान होय आप पास आ लसें ।।
(तत्रैव-पूजा नं. २, प.सं. ४, पृ० १४) अध्यात्म रस समन्वितमैं शुद्ध बुद्ध हूँ अमल अकल अविकारी ज्योति स्वरूपी हूँ। निज देह रूप देवालय में रहते भी चिन्मयमूर्ती हैं। इस विधि से आतम अनुभव ही पर मैं सब ममत हटाता है। यह निज को निज के द्वारा ही बस निज में रमण कराता है।
(पूर्व पुष्करार्ध द्वीप भरत क्षेत्र भावी तीर्थंकर पूजा नं. २२, जयमाल प. सं. ५, पृ. १८३) स्यावाद नय समन्वितप्रत्येक वस्तु है अस्ति रूप औ नास्ति रूप भी है वो ही। वो ही है अभय रूप समझो फिर अवक्तव्य है भी वो ही॥ वो अस्ति रूप औ अवक्तव्य, फिर नास्ति अवक्तव्य भंगधरे। फिर अस्ति नास्ति और अवक्तव्य ये सात भंग हैं खरे खरे ।।
(पूर्व धातकी भरत क्षेत्र वर्तमान तीर्थंकर पूजा जयमाल नं. ९, प.सं. ३, पृ. ६३) विवेच्य कृति के छन्दोवैविध्य से जहाँ ग्रन्थ के सौन्दर्य में वृद्धि हुई है और माताजी के प्रकाण्ड पाण्डित्य तथा काव्य कौशल का निदर्शन हुआ है वहीं भक्त रसिक इसे पढ़कर भाव विभोर भी हो उठता है। भक्त भक्ति रूपी गंगा में अवगाहन करके कृतकृत्य हो जाता है और वह आनन्द उसके असंख्यात गुणी कर्म की निर्जरा कर देता है। उस समय असीम पुण्य का संचय होता है, आते हुए अशुभ कर्म रुक जाते हैं।
जीवन की ग्रंथिलता की कटु औषधि को काव्य-शर्करा के आवरण में जन-जीवन के लिए सहज पेय बनाने का प्रशंसनीय कार्य किया है।
हिन्दी पद्यानुवाद करके भक्ति संयुक्त उपदेश की सामग्री का काव्य की भाव-चेतना के धरातल पर हृदयार्जक संचयन किया है। इस प्रकार विधान का माहात्म्य अचिन्त्य है।
प्रसन्नता की बात यह है कि विद्वत्समाज और साधारण जनता ने जगह-जगह यह तीस चौबीसी पूजन विधान समारोहपूर्वक आयोजित करके जहाँ इसके प्रति आदर व्यक्त किया है, वहीं जिनशासन की महती प्रभावना की है और स्वयं के कर्मों की निर्जरा का महनीय निमित्त भी उपलब्ध किया है।
ब्र० कु. माधुरी शास्त्री ने ग्रन्थ की प्रस्तावना लिखकर विषय का स्पष्टीकरण प्रारम्भ में ही कर दिया है तथा माताजी के जीवन-दर्शन की संक्षिप्त झलक देकर वर्तमान काल में उन्हें मोक्षमार्ग की समीचीन विश्लेषिका निरूपित किया है। आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी ने साधु जीवन में बहुविध
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