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वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला
इसके भ्रमणशील होने पर शंकित हैं। इसके अतिरिक्त पुस्तक के अंत में ९ पृष्ठों में ४ विस्तृत चार्ट दिये हैं, जिनका निर्माण प्राचीन ग्रंथों में उपलब्ध जंबूद्वीप की नदियाँ, सरोवरों, पर्वतों, क्षेत्रों के विवेचनों के गणितीय रूपांतरण से किया गया है। गणितीय आधार पर इन चार्टों की शुद्धता लेखिका की विषय में गहन अभिरुचि, लगन, गणितीय क्षमता एवं दक्षता को अभिव्यक्त करती है। ग्रंथ के आरंभ में लेखिका द्वारा लिखा गया आद्यमिताक्षर, जंबूद्वीप स्तुति भी पठनीय है।
प्राचीन भारतीय भूगोल की अद्यावधि प्रकाशित पुस्तकों में जैन भूगोल को अपेक्षित महत्त्व न प्राप्त हो सका है। फलतः जैन भूगोल का ज्ञान प्रदान करने वाली किसी प्रामाणिक पुस्तक का लगभग अभाव था। लेखिका की ही एक अन्य पूर्व प्रकाशित पुस्तक त्रिलोक भास्कर को अपवादस्वरूप माना जा सकता है। जैन धर्म की मूल, दिगम्बर परम्परा में दीक्षित लेखिका की इस कृति का विवेचन परम्परित, किन्तु प्रामाणिक है। इस लघु पुस्तिका में माताजी ने गागर में सागर भर दिया है। विद्वानों की ओर से इस कृति सृजन हेतु लेखिका एवं आकर्षक मुद्रण हेतु मुद्रक एवं प्रकाशक बधाई के पात्र हैं।
त्रिलोक भास्कर
समीक्षक-प्रो० लक्ष्मीचन्द्र जैन, निदेशक-आचार्य श्री विद्यासागर शोध संस्थान, जबलपुर [म.प्र.]
अभूतपूर्व, अमर एवं आधाभूत प्रयासउक्त ग्रंथ वीर ज्ञानोदय ग्रंथमाला का तृतीय पुष्प है, जो हिन्दी में त्रिलोक विषयक प्रायः समस्त करणानुयोग ज्ञान सामग्री को दिगम्बर जैन परम्परानुसार द्वारा सरल भाषा में लोकप्रिय विवेचन द्वारा दिया गया है। जैसा इस ग्रंथ का नाम है तदनुसार यह मौलिक कृति जो आगम ग्रंथों का आधार लेकर रची गई है।
प्रारम्भ में श्री सुमेर चन्द्र जैन द्वारा "त्रिलोक भास्कर-एक अध्ययन" भूमिका रूप में प्रस्तुत किया गया है। इसमें दृष्टिवाद के परिकर्मादि का वर्णन देते हुए लोकविषयक विभिन्न धर्मों में प्रचलित मान्यताएं बतलाई गई हैं। उनके परिप्रेक्ष्य में जैन आगम की लोक विषयक मान्यताओं का विशद विवरण देते हुए समन्वय प्रस्तुत किया गया है। अगले पृष्ठ में ब्र. मोतीचंद्र जैन (पू.क्षु, मोतीसागर) द्वारा प्राक्कथन दिया गया है जिसमें महायोजन, कोस, योजन, गज, मील आदि इकाइयों के बीच सम्बन्ध स्थापित करते हुए योजन का परिष्कृत बोध कराया गया है। योजन का मान अनेक विद्वानों ने अलग-अलग रूप में प्रस्तुत किया है और यह सुनिश्चित है कि तीन प्रकार के अंगुलों पर आधारित योजन के प्रमाण लोक, गणित, ज्योतिष तथा गणित भूगोल के
अनुसार अलग-अलग होते हैं। योजन का आधार विभिन्न योजनाएं प्रतीत होती हैं। आगे पूज्य आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमतीजी का जीवन परिचय एवं कृतित्व दिया गया है। तत्पश्चात् उन्हीं के द्वारा रचित त्रैलोक्य चैत्य वंदना पद्य में दी गयी है, जिसमें तीनों भुवन के जिनभवनों आदि की समस्त विराजित प्रतिमाओं की वंदना दी गयी है।
प्रारम्भ सामान्य लोक में वर्णन से है जिसमें लोक के तीन विभाग, त्रसनाली, विभिन्न अधोलोक, मध्यलोक एवं ऊर्ध्वलोक संबंधी रचनाएं वातवलय आदि के माप, लंबाई, चौड़ाई, क्षेत्रफल और मान फल रूप में दिये गये हैं। कोस, योजन, अंगुल, पल्य, सागर आदि के प्रमाणों को निकालने की विधियाँ दी गयी हैं।
तत्पश्चात् अधोलोक का वर्णन प्रारम्भ होता है, जिसमें पृथ्वियों के नाम, मोटाई, नरक बिल, बिलों के प्रकार, संख्या, विस्तार, प्रमाण अन्तराल पटलान्तर आदि का विशद वर्णन है। नरक में उत्पत्ति दुःख सम्यक्त्व के कारण, शरीर अवगाहना, लेश्या, आयु आदि का विवरण है। इसके बाद अगले परिच्छेद में भवनवासी देवों का विवरण है। जिसमें उनके स्थान, भेद, चिह्न, भवन संख्या, इंद्र भवन, जिनमन्दिर, परिवार देव, पारिषद देव, आहार उच्छ्वास, इन्द्र वैभव, आयु अवगाहना, ज्ञान, विक्रिया आदि का चार्ट सहित वर्णन है। इसी प्रकार का विवरण व्यन्तरवासी देव सम्बन्धी है। मध्यलोक के विवरण में जंबूद्वीप, भरतक्षेत्र, हिमवन पर्वत, गंगादि नदी, सरोवर, कूट, सुमेरुपर्वत, पांडुक शिला, वन, चैत्यवृक्ष, मानस्तम्भ, सौमनस भवन, नन्दनवन, हरित एवं सीतादा नदियों का वर्णन है। कुरु, वृक्ष, विदेह, पर्वत, नदी, द्वीप आर्यखण्ड, आदि का संख्यामानादि सहित एवं चित्रोंसहित वर्णन है। पुनः विभिन्न षट्कालों में होने वाले परिवर्तनों का भी विवरण दिया गया है।
तत्पश्चात् जम्बूद्वीप के सात क्षेत्र, बत्तीस विदेह, चौंतीस कर्मभूमि आदि का विवरण है। लवणसमुद्र, पाताल, धातकी खंड द्वीप एवं पुष्कर द्वीप, उनके विभिन्न क्षेत्र, पर्वतविस्तार आदि का विवरण दिया गया है। मानुषोत्तर पर्वत, मनुष्यों का अस्तित्व, सम्यक्त्व के कारण आदि दिये गये हैं। पुनः
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