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गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ
अच्युते स्वर्ग तक के इन्द्रादिक देव सपरिकर आते हैं ।। । आकाश व्याप्त कर असंख्यात सुर मध्यलोक में आते हैं। जिन समवशरण को देख दूर से नमते शीश झुकाते हैं ॥३७॥
प्रभु समवशरण रचना लखकर अतिशय विस्मित हो जाते हैं। टिमकार रहित हो बार-बार दर्शन करते हर्षाति हैं । निज जन्म सफल करते सुरगण अतिशय आनन्द मनाते हैं। क्रम से वंदन पूजन करते तीर्थंकर सन्निध आते हैं ॥ ३८ ॥
इस मंगलाचरण एवं ग्रन्थ भूमिका को विधान के प्रारंभ में सामूहिक रूप से आद्योपान्त अवश्य पढ़ना चाहिए जिसमें रचयित्री के करणानुयोग विषयक सूक्ष्मज्ञान का परिचय प्राप्त होता है। जिस प्रकार की विधि इसमें वर्णित है यदि सम्पूर्ण उसी विधि को ध्यान में रखते हुए इस 'महायज्ञ' का आयोजन किया जावे तो निश्चित रूप से अचिन्त्य फल को प्राप्ति हो सकती है। इस काव्य में नायक के रूप में तीर्थंकर भगवान् हैं, नायिका शिवलक्ष्मी हैं। रसों में नवों रस हैं फिर भी शांतरस, अध्यात्मरस और करुणरस इसमें प्रधान रूप से मिलता है। उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा, यमक आदि अलंकार तथा ५० से अधिक छन्दों का प्रयोग इसे "महाकाव्य" की श्रेणी में स्वयमेव ला देता है।
इसके पश्चात् "मंगलस्तोत्रम्" नाम से संस्कृत के २४ श्लोक है, ये श्लोक भी पूज्य माताजी द्वारा रचित हैं "शार्दूलविक्रीडित" छंद के इन २४ श्लोकों का शुभारंभ “सिद्धेः कारणमुत्तमा जिनवरा आर्हन्यलक्ष्मीवराः" इत्यादि रूप से किया है इसमें श्री प्रारंभ में सिद्ध शब्द का प्रयोग रचयित्री ने किया है। इससे यह प्रतीत होता है कि पूज्य ज्ञानमती माताजी को "सिद्ध" शब्द अत्यन्त प्रिय है। इनकी अन्य कई काव्य रचनाओं में भी मैंने सिद्ध पद की प्रमुखता देखी है। शायद कार्य की निर्विघ्न समाप्ति एवं अत्यंत मंगलसूचक यह लघु मंत्र आर्यिका श्री के सर्वतोमुखी विकास का ही सूचक है क्यों बीसवीं शताब्दी भूत और भविष्य दोनों के लिए आर्यिका श्री की अद्वितीय साहित्य देन के लिए स्वर्णिम इतिहास को प्रस्तुत करने वाली रहेगी इसमें कोई सन्देह नहीं है।
इस मंगल स्तोत्र के २४ छंदों में पूरे समवशरण का वर्णन आ गया है। यथा
पूज्यां गंधकुटीं दधाति कटनी रत्नादिभिर्निर्मिता 1 एतस्यां हरिविष्टरे मणिमये मुक्ताफलाद्यैर्युते ॥
आकाशे चतुरंगुले जिनवरास्तिष्ठति धर्मेश्वराः । एते गंधकुटीश्वराः वरजिनाः कुर्वन्तु नो मंगलम् ॥ १३ ॥
माधुर्य रस से ओतप्रोत उपर्युक्त संस्कृत छंद भी सहजरूप से अर्थबोध करा देता है।
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२४ संख्या का व्यापक प्रयोग
चौबीसों तीर्थंकर की संख्या को प्रकाशित करने वाली "२४" की अंक संख्या जैनधर्म में अत्यन्त महत्त्वपूर्ण मानी गई है। प्रस्तुत काव्यकृति "कल्पद्रुम विधान" में सर्वप्रथम यह २४ संख्या मंगलस्तोत्र में आई है। इस पूरी कृति में २४ संख्या १०८ बार प्रयुक्त हुई है। २४ ही इसमें पूजाएं हैं, अंत की "समवशरण चूलिका" नामक बड़ी जयमाला में २४ ही पद्य [शंभु छंद में] हैं। प्रत्येक पूजा के मध्य में जो मंत्र है वह भी २४ अक्षरी है एवं इस विधान में २४२४ अर्घ्य संख्या है उसमें भी १०१ बार २४ की संख्या हो जाती है, ७२ पूणार्घ्य हैं अतः ३ बार २४ की संख्या हो जाती है। इस प्रकार १०१+३+१+१+१+१=१०८ बार २४ की संख्या अपूर्व अतिशय को प्रकट करती है।
काव्यकृति का द्वितीय चरण समवशरण की समुच्चय पूजा से प्रारंभ होता है।
प्रथम पूजा में सामान्य रूप से चौबीसों तीर्थंकरों के समवशरण का वैभव दर्शाया गया है। इस पूजन की स्थापना गीता और दोहा छंदों में निबद्ध है जिसमें मुख्य रूप से चार घातिया कर्मों के नाश से अनन्त चतुष्टय को प्राप्त तीर्थंकर भगवान का आह्वानन स्थापन कर हृदय में विराजमान करने की प्रेरणा भक्त को प्रदान की है। यथा
दोहा
अनन्तचतुष्टय के धनी तीर्थंकर चौबीस 1
आह्वान कर मैं जूं नमूं नमूं नत शीश ॥ २ ॥
जिनेन्द्र प्रभु बाह्य और अन्तरंग दोनों प्रकार की लक्ष्मी से सहित होते है समवशरण आदि तो बाह्य विभव है और अनंत ज्ञान, अनंतदर्शन, अनंत सुख, अनंतवीर्य ये चार चतुष्टय अंतरंग लक्ष्मी हैं। यही लक्ष्मी उनके लिए वास्तविक धन है इसी भाव से कवयित्री ने "अनन्तचतुष्टय के धनी "
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