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कल्पद्रुम विधान
गणिनी आर्यिका ज्ञानमती
कल्पद्रुम विधान
वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला
- एक अलौकिक महाकाव्य
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समीक्षिका आर्थिका चन्दनामती
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कल्पना मात्र से ही इच्छित फल को प्रदान करने वाला कल्पद्रुम- कल्पवृक्ष कहलाता है। लोक में यह प्रसिद्धि है कि चिन्तामणिरत्न चिन्तित वस्तु को प्रदान करता है और कल्पवृक्ष के पास याचना करने पर मनवाञ्छित वस्तु की प्राप्ति होती है। वर्तमान युग में न तो चिन्तामणि रत्न ही प्राप्य है और न कल्पवृक्ष ही उपलब्ध हैं तो " कल्पद्रुम नामका विधान कहाँ से आया?” इस विषय पर सहज की प्रश्न उठता है । किन्तु आगम के अवलोकन से ज्ञात होता है कि कल्पवृक्ष तो याचना करने पर इच्छित फल प्रदान करता है, चिन्तामणि रत्न भी चिन्तन मात्र से ही कुछ देता है, लेकिन जिनेन्द्र भगवान् की पूजा भक्ति वह अद्वितीय कल्पवृक्ष है जो बिना मांगे ही कल्पनातीत फल को प्रदान करने वाली है।
उसी जिनेन्द्र पूजा पर आधारित है "कल्पद्रुम महामण्डल विधान परमपूज्य १०५ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी की मौलिक काव्यकृति है, जो सम्पूर्ण भारतवर्ष में अपनी लोकप्रियता के कारण अत्यधिक प्रख्यात हो चुकी है।
काव्य की मौलिकता का रहस्य
जैन आगम में पूजा पांच प्रकार की मानी है - नित्यमह, आष्टान्हिक, चतुर्मुख, इन्द्रध्वज और कल्पद्रुम । इनमें से नित्यमह और आष्टान्हिक पूजाओं को करने की परम्परा तो प्रचलित थी, किन्तु अन्य पूजाओं के बारे में लोगों को ज्ञात ही नहीं था कि ये कैसे की जाती हैं? हाँ, इन्द्रध्वज विधान की १-२ संस्कृत की हस्तलिखित प्रतियाँ कहीं-कहीं मन्दिरों में देखी गई थीं जिनमें "श्री विश्वभूषण' नामक भट्टारक के द्वारा इन्द्रध्वज की विधि का उल्लेख था । सन् १९७६ में पूज्य श्री ज्ञानमती माताजी ने उसी संस्कृत प्रति के आधार से हिन्दी में सरस काव्य शैली का "इन्द्रध्वज विधान" रचा जिससे आज जनमानस परिचित है। पूज्य आर्यिका श्री ने पांचों प्रकार की पूजाओं का सृजन किया है। जो चक्रवर्तियों के द्वारा किमिच्छक [मुंहमांगा] दान देकर किया जाता है और जिसमें जगत् के समस्त जीवों की आशाएं पूर्ण की जाती हैं उसे 'कल्पद्रुमयज्ञ' कहते हैं। यह यज्ञ चक्रवर्ती ही कर सकते हैं। हमारा समीक्ष्य काव्य 'कल्पद्रुम विधान" जो दिगम्बर जैन त्रिलोक शोध संस्थान - हस्तिनापुर से प्रकाशित है उसके आद्य वक्तव्य में रचयित्री ने स्वयं कल्पद्रुम विधान के बारे में लिखा है, काव्य ग्रन्थ की मौलिकता का परिचय मिलता है। यथा
"बहुत दिनों से मेरे मन में 'कल्पद्रुम' विधान रचने की इच्छा थी। जिस प्रकार इन्द्रध्वज विधान इन्द्रों द्वारा किया जाता है अथवा पञ्चकल्याणक महोत्सव इन्द्रों द्वारा ही मनाया जाता है फिर भी आज स्थापना निक्षेप से इन्द्र बनकर श्रावक लोग इन्द्रध्वज विधान करते हैं अथवा इन्द्र बनकर पंचकल्याणक महोत्सव रचाते हैं। वैसे ही अपने में चक्रवर्ती का निक्षेप कर श्रावक कल्पद्रुम विधान कर सकते हैं।"
कल्पद्रुम विधान में किनकी पूजा करें एवं किस विधि से करें? इस पर माताजी ने चिन्तन किया और स्वयं के चिन्तन एवं अगाध शन के बल पर कवयित्री आर्यिका श्री ने इस कृति के विषय का चयन किया है। जैसा कि उन्होंने स्वयं आद्यवक्तव्य में लिखा है
"इस विधान के नायक धर्मचक्र के स्वामीतीर्थंकर ही हो सकते हैं क्योंकि इनसे बड़े पूज्य और महान् तीनों लोकों में कोई भी नहीं है। तथा तीर्थंकर के समवशरण से बढ़कर अन्य कोई धर्मसभा स्थान नहीं है न अन्य कोई वैभव ही है। इसीलिए इस विधान में तीर्थंकर भगवान के महान् वैभवपूर्ण समवशरण की ही पूजाएं हैं। पुनः तीर्थंकर प्रभु के गुण, पुण्य, कल्याणक आदि व उनके तीथों में होने वाले मुनियों की भी पूजाएं हैं।" यह तो हुई काव्यकृति की मौलिक महानता, अब किंचित् दृष्टि कवयित्री की काव्यरचना पर डालें जो विविध छंद एवं अलंकारों में निबद्ध है।
"सिद्ध शब्द से काव्य का प्रारम्भीकरण
"सिद्धों को करूँ नमस्कार भक्ति भाव से" इत्यादि शेर छंद की पंक्तियों से कल्पद्रुम विधान के मंगलाचरण (पीठिका) का शुभारम्भ हुआ है। १४ पृष्ठों की इस छंदोबद्ध भूमिका में मंगलाचरण के साथ-साथ पूज्य, पूजक, पूजाविधि, पूजा का फल इन सभी बातों पर प्रकाश डाला गया है और समवशरण के चारों ओर १०८ दीपक जलाना, अनेक प्रकार के संगीत वाद्यों की शुद्धि करना, मण्डल की चारों दिशाओं में बैठने वाले समस्त इन्द्र गणों द्वारा घुटने टेक कर मुकुट समेत शिर झुकाकर भगवान को नमस्कार करने एवं चारों निकाय के इन्द्र जो जिनेन्द्र भगवान की पूजा करते हैं उन सभी का अपनी-अपनी सेनाओं सहित आने का सम्पूर्ण वर्णन "शंभु छंद" में किया गया है। यथा
सुरपति आज्ञा से चउ निकाय के देव सपरिकर आते हैं।
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