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वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला
प्रभु को नमन कर स्वयं भी इसी धन की प्राप्ति हेतु कामना की है।
आगे अष्टक में तो अपूर्व काव्यप्रतिभा का परिचय कराया है जहाँ जल, चंदन आदि आठों द्रव्यों की उपमा जिनेन्द्र गुणों के साथ की है जिन्हें पढ़कर कैसा भी नास्तिक व्यक्ति हो वह भी अपने मिथ्यात्व का शमन करके जिन गुणों में अनुरक्त होने लगता है। एक अष्टक से ही भक्तिरस का अनुमान लगाया जा सकता है। देखेंनंदीश्वर पूजा की चाल- जिन तनु की कांति समान, दीपक ज्योति घटे।
मैं करूं आरती नाथ, मम सब आर्त हरे॥ जिन समवसरण की भूमि, अतिशय विभव घटे।
जो पूजें जिनपदपद्म, वे निज विभव भरें ॥६॥ उपमा अलंकार और शांत रस से गूंथा गया यह छंद तीर्थंकर के शरीर की अतिशय कांति को दर्शाता है जिसे सौधर्म इन्द्र हजार नेत्रों से देख कर भी तृप्त नहीं होता है। उस अतुलनीय, अवर्णनीय, कांति के सदृश दीपक कहाँ से भक्त पुजारी लाएगा? अर्थात् इसमें तो कवयित्री के भावों की परमोत्कृष्ट उज्ज्वलता प्रतिभासित होती है उस भावना से ओत-प्रोत भक्त द्वारा जलाया गया मिट्टी का दीपक भी संसार के समस्त आर्त-कष्टों का नाश कर देता है। तात्पर्य यही है मोह अंधकार के विनाशन हेतु दीपक पूजा अष्ट द्रव्य में एक द्रव्य है इसके बिना पूजा अधूरी रहती है। इस दीपक से भगवान के सामने आरती करना ही दीपक पूजा है।
इसी प्रकार नीचे की दोनों पंक्तियों में जिनेन्द्र भगवान से पवित्र समवशरण की भूमि का अतिशय बताया है एवं भक्त को पूजा का फल भी बतला दिया है कि आप समवशरण वैभव से संयुक्त तीर्थंकर के चरण कमल की पूजा से निजआत्मिक वैभव को प्राप्त करेंगे। यह तो उत्कृष्ट फल बताया है, सांसारिक वैभव तो स्वयमेव प्राप्त हो ही जाता है उसे मांगने की आवश्यकता नहीं पड़ती है। पूजा प्रकरण में यह भी उल्लेखनीय है कि पूज्य श्री ज्ञानमती माताजी द्वारा रचित समस्त पूजाओं में अष्टक के पश्चात् शांतिधारा-पुष्पांजलि के छंद भी हैं, जो दोहा या सोरठा छंदों में निबद्ध हैं। श्री पूज्यपाद स्वामी द्वारा रचित अभिषेक पाठ के अंत में अष्टद्रव्य पूजा है पुनः अर्घ्य के बाद शांतिधारा और पुष्पांजलि है उसी के आधार से सभी पूजन में शांतिधारा पुष्पांजलि की परंपरा पूज्य माताजी ने रखी है।
प्रकृति का सौंदर्य फूलों की सुगंध में छिपा होता है पुष्पांजलि में मानो कवि का प्राकृतिक स्नेह ही छिपा हुआ है। यथादोहा
लाल श्वेत पीतादि बहु, सुरभित पुष्प गुलाब ।
पुष्पांजलि से पूजते, हो निजात्म सुख लाभ । भक्ति और पूजा के साथ-साथ उपचार महाव्रत धारिणी आर्यिका श्री की आत्मिक रुचि “हो निजात्म सुख लाभ" से परिलक्षित होती है क्योंकि वास्तविक भक्ति का अभिप्राय भी यही होना चाहिए।
इसके पश्चात् चौबीस अक्षरी जाप्य मंत्र है जो १०८ बार जपा जाता है। अन्तर जयमाला के १४ छंदों में अत्यंत सरस और सरल रूप में समवशरण रचना का वर्णन है। पूरी जयमाला का आनन्द तो उसे पढ़ और समझकर ही लिया जा सकता है यहाँ मात्र नमूने के तौर पर निम्न छंद देखेंशंभुछन्द
जय जय तीर्थंकर क्षेमंकर, तुम धर्मचक्र के कर्ता हो। जय जय अनन्तदर्शनसुज्ञान सुखवीर्य चतुष्टय भर्ता हो । जय जय अनन्त गुण के धारी, प्रभु तुम उपदेश सभान्यारी ।
सुरपति की आज्ञा से धनपति रचता है त्रिभुवन मनहारी ॥२॥ भक्ति के बहाने से मानो कवयित्री ने इस जयमाला में सारा करणानुयोग ही भर दिया है। इसी प्रकार चतुर्थ छन्द है
पहला परकोटा धूलिसाल, बहुवर्णरत्ननिर्मित सुन्दर । कहिं पद्मराग कहिं मरकतमणि, कहिं इन्द्रनीलमणि से मनहर ।। इसके अभ्यंतर चारों दिश, हैं मानस्तम्भ बने ऊँचे।
ये बारह योजन से दिखते, जिनवर से द्विदश गुणे ऊंचे ॥४॥ ऐसा लगाता है कि माताजी ने किसी तीर्थंकर के समवशरण को साक्षात् देखकर ही उसे अपने शब्दों में बांधा है। परन्तु इस पंचम काल के मानव को समवशरण का दर्शन तो सुलभ ही नहीं है। अतः आगम दर्पण में ही समवशरण का अवलोकन एवं पूर्वजन्मों के समवशरण दर्शन का संस्कार ही
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