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वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला
पूज्य माताजी द्वारा संकलित और अनुवादित इस "सामायिक एवं श्रावक प्रतिक्रमण" का अध्ययन कर हम और आप सभी सच्चे श्रावक बनकर अपना आत्मकल्याण करें। इन्हीं मंगल भावनाओं के साथ मैं पूज्य माताजी के चरणकमलों में कोटिशः नमन करती हूँ।
जम्बूद्वीप
समीक्षक-जवाहरलाल मोतीलाल जैन, भीण्डर (उदयपुर)
प्रस्तुत पुस्तक ८-१/२" x ५-१/२" साइज की तथा ८० पृष्ठ प्रमाण प्राक्कथन प्रस्तावना सहित है, जो आर्यिका
१०५ पू. ज्ञानमतीजी द्वारा प्रणीत है। इसमें जंबूद्वीप का वर्णन है। यह भौगोलिक वर्णन आज के लौकिक LMS DVIP AND HASTINAPUR
भूगोल से अत्यन्त भिन्नता रखता है। जम्बूद्वीप
हमारा जैन भूगोल काल्पनिक नहीं, बल्कि ठोस सत्य है। क्योंकि सांसारिक ज्ञान की सीमाएं हैं और आध्यात्मिक अथवा आत्मज्ञ-प्रणीत ज्ञान असीम होता है।
समीक्ष्य पुस्तक "जंबूद्वीप" में जंबूद्वीप तथा पृथ्वी को चपटी, गोल तथा अभ्रमणशील साधा है। यही बात यथा-लेखनी-यथाप्रणयन, माताजी की अमर कृति जंबूद्वीप (ऐतिहासिक रचना, हस्तिनापुर) से भी प्रत्यक्षतः स्पष्ट होती रहती है।
जागतिक वैज्ञानिकों का ज्ञान तो अस्थिर होता है। कुछ समय पूर्व भूगोल-वेत्ता पृथ्वी को गतिमान मानकर भी सूर्य को स्थिर मानते थे। किन्तु अब विकसित विज्ञान के अनुसार सूर्य की गति २०० मील प्रति
सैकंड सिद्ध की गई है। पहले प्रकाश सीधी रेखाओं में चलता था। विज्ञान अब उसे ही वक्रगतिशील भी मानने लगा है। जगदीश चन्द्र वसु के पूर्व वनस्पति को निर्जीव तथा इसके बाद वनस्पति को सजीव माना जाने लगा है। विज्ञान स्वयं कहता है कि हम जो कुछ तथ्य खोज निकालते हैं, उसे हम स्वयं भी अंतिम सत्य नहीं मानते। १५०० ई.पू. मिस्रवासी पृथ्वी को चपटी मानते थे। पाइथोगोरस (५८२-५०७ ई.पू.) ने पृथ्वी को गोल माना। आटिस्टोरस ने (३०० ई.पू.) सर्वप्रथम पृथ्वी को सूर्य के चारों ओर भ्रमणशील कहा। पर टॉलेमी, अरस्तु आदि पृथ्वी को स्थिर मानते थे। परन्तु गैलिलियो (इटली, १५६४-१६४२), न्यूटन, आइंस्टीन जर्मनी (१८७९-१८५५) आदि ने पृथ्वी को गतिमान माना। इस तरह विज्ञान में तो अनेक मतभेद हैं। एक वैज्ञानिक का चिरकाल साध्य परिणाम भी सुनिए-एडगल ने ५० वर्ष तक लगातार चेष्टा की। उसने रात्रि के समय आकाश की परीक्षा के लिए कभी बिछौने पर न सोकर कुर्सी पर ही रातें बिताई। उसने अपने बगीचे में एक ऐसा लोहे का नल गाढ़ा, जो कि ध्रुव तारे की तरफ उन्मुख था और उसके भीतर से देखा जा सकता था। इस उत्साही निरीक्षक ने आखिर इस सिद्धान्त का अन्वेषण किया, "पृथ्वी थाली के आकार की चपटी है, जिसके चारों तरफ सूर्य उत्तर से दक्षिण की तरफ घूमता है। सत्य भी यही है कि पृथ्वी चपटी है तथा अभ्रमणशील है, जिसे महाविदुषी लेखिका ने इस पुस्तक द्वारा साबित-प्रमाणित किया है। माताजी ने सिद्ध किया है कि पृथ्वी जंबूद्वीप की अपेक्षा थाली के समान और भरत क्षेत्र की अपेक्षा अर्द्धचन्द्र जैसी है।
पूज्य ज्ञानमतीजी (सन् १९३४ में जन्म, वि.सं. २०९३ में आर्यिका दीक्षा, भारत में सर्व-प्राचीन आर्यिका, स्व. जैन तिलक मक्खनलालजी शास्त्री मोरेना के शब्दों में श्रुतकेवली-कल्प, अष्टसहस्री सदृश क्लिष्टतम महाकाय ग्रंथ की अनुवादिका तथा इतर लघु-महत् १०० पुस्तकों की प्रणेत्री, भारत ख्यात तथा सर्वश्रेष्ठ न्यायग्रंथ विज्ञा) ने प्रकृत ग्रंथ में जम्बूद्वीप का मुख्यतया वर्णन किया है। जिसे चपटा गोल तथा १ लाख योजन व्यास वाला बताया है। आपने इस लघु पुस्तिका की रचना में तिलोयपण्णत्ति, त्रिलोकसार, जंबूद्वीपप्रज्ञप्ति, महापुराण, राजवार्तिक व लोकविभाग नामक ग्रंथों का सहारा लिया है। इसमें जंबूद्वीप के ७ क्षेत्र, ६ पर्वत, ६ सरोवर, १४ नदियों, सुमेरु आदि कुल ३११ पर्वत सम्पूर्ण १७९२०९० नदियों, ३४ कर्मभूमि, ६ भोगभूमि, जंबूवृक्ष, आर्य-म्लेच्छ खण्ड तथा विविध कूटों का वर्णन अत्यन्त सहज, प्रामाणिक, सरल, आबालगम्य तथा सर्वत्र योजन के मील परिवर्तनपरक वर्णन किया है। इससे यह पुस्तक परमार्थतः जंबूद्वीप का एक तरह से साकल्येन वर्णन करने वाली पुस्तक बन पड़ी है। फिर आपके उपदेशात्मक मार्ग दर्शन से भौतिक मॉडल भी, जंबूद्वीप का हस्तिनापुर में बना है। तब फिर ऐसे अनुभव वाले पुरुष द्वारा तद्विषयक रची गई पुस्तक में किसी सैद्धान्तिक दोष होने का प्रश्न ही नहीं उठता।
अंत में लवणसमुद्र का संक्षिप्त व रोचक वर्णन किया है। लवणसमुद्र संबंधी सूर्य, चन्द्रमा आदि तो जल में घूमते हैं। (रा.वा.) रावण की लंका भी लवणसमुद्र में थी (प.पु.) । किनरियों के नृत्य के कारण इस समुद्र के जल में वृद्धि होती है (रा.वा.), आदि रोचक व संक्षिप्त वर्णनों के बाद ४
१ तीर्थकर अगस्त ८२ पृ. ६७
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