________________
गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ
[४०५
सहस्री के अनुवाद को देखकर सिद्धान्ताचार्य पं. कैलाशचन्द्र जी ने कहा था-"सौ विद्वान मिलकर जिस कार्य को नहीं कर पाते, उसे अकेली ज्ञानमती माताजी ने कर दिया।" द्वितीय भाग की प्रस्तावना में डॉ. पं. लालबहादुर शास्त्री, दिल्ली ने माताजी के वैदुष्य की जो प्रशंसा की है, वह पठनीय है।
जैन वाङ्मय में मीमांसा दर्शन भावना-नियोग-विधि की चर्चा सर्वप्रथम तीक्ष्ण बुद्धि विद्यानंद द्वारा की गई है। मीमांसा दर्शन की जैसी और जितनी सबल मीमांसा तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक में है, उतनी और वैसी मीमांसा जैन दर्शन की अन्य कृतियों में नहीं है। इनका समझना मीमांसा के तलस्पर्शी विद्वान् का कार्य है। इस प्रकार के प्रकरण अष्टसहस्री में भी आए हैं, माताजी ने इनका सफल अनुवाद किया है और ऐसी चर्चाओं के भावार्थ भी दे दिए हैं। इस प्रकार अष्टसहस्री की स्याद्वाद चिन्तामणि टीका सर्वाङ्ग सुन्दर है।
मूलाचार समीक्षक-डा. पन्नालाल जैन साहित्याचार्य, अधिष्ठाता-वर्णी दि. जैन गुरुकुल पिसनहारी की मड़िया, जबलपुर।
साधु संहिता का अनमोल ग्रंथद्वादशांग में आचारांग को प्रथम स्थान दिया है। इससे सिद्ध है'आचारः प्रथमो धर्मः" आचार आद्य धर्म है।
मूल संघ में दीक्षित साधु का आचार कैसा होना चाहिए? इसका दिग्दर्शन कराने के लिए वट्टकेराचार्य ने मलाचार
मूलाचार की रचना की है।
___ मूलाचार जैन साधुओं के आचार विषय का एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण, प्रामाणिक प्राचीन ग्रंथ है। यह वर्तमान में दिगम्बर साधुओं का आचारांग सूत्र माना जाता है। इसकी कितनी ही गाथाएं उत्तरवर्ती ग्रंथकारों ने
अपने-अपने ग्रंथों में उद्धृत ही नहीं की हैं, अपितु उन्हें प्रकरणानुरूप अपने ग्रंथों का अंग बना लिया है। जैन मलाचा
वाङ्मय में साधुओं के आचार का वर्णन करने वाला यह प्रथम ग्रंथ है। इसके बाद मूलाराधना, आचारसार, चारित्रसार ग्रंथ रचे गये हैं, उनका आधार मूलाचार ही है।
यह न केवल चारित्र विषयक ग्रंथ है, किन्तु ज्ञान, ध्यान, तप में लीन रहने वाले साधुओं की ज्ञानवृद्धि
में सहायक अनेक विषयों के समाविष्ट होने से 'आकर' जैसा ग्रंथ है। इसका पर्याप्त्यधिकार द्रव्यानुयोग और करणानुयोग की चर्चाओं से परिपूर्ण है।
मूलाचार ग्रंथ निम्नलिखित बारह अधिकारों में विभाजित है१. मूलगुणाधिकार-यह ३६ गाथाओं में पूर्ण हुआ है। इसमें मुनियों के २८ मूलगुणों तथा उनका स्वरूप प्रदर्शित किया गया है।
२. बृहत्प्रत्याख्यान-संस्तर स्तवाधिकार-इसमें ७१ गाथाएं हैं, जिनमें मृत्यु के समय समस्त पापों का परित्याग कर दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तप आराधना में स्थिर रखने का उपदेश है। सल्लेखना धारण करने के पूर्व निर्यापकाचार्य के सामने अपने समस्त पापों का प्रत्याख्यान करना आवश्यक बताया गया है।
३. संक्षिप्त प्रत्याख्यानाधिकार-यह १४ गाथाओं में पूर्ण हुआ है। इसमें आकस्मिक मृत्यु का प्रसंग उपस्थित होने पर पांच पापों का त्याग कर संन्यस्त होने की विधि का वर्णन है।
४. समाचाराधिकार-यह अधिकार ७६ गाथाओं में पूर्ण है। इसमें समाचार शब्द के चार अर्थ इस प्रकार बताये हैं-रागद्वेष का त्याग कर समता भाव, मूलगुणों का निर्दोष पालन, समस्त साधुओं का समान निर्दोष आचरण और सभी क्षेत्रों में कायोत्सर्गादि के परिणामरूप आचरण ।
५. पंचाचाराधिकार-यह अधिकार २२२ गाथाओं में पूर्ण हुआ है तथा दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप और वीर्य आचार का वर्णन विस्तार से करता है। ६. पिण्डशुद्धि अधिकार-इसमें ८३ गाथाएं हैं, जिनमें साधुओं के ४६ दोष रहित आहार का वर्णन है। ४६ दोषों का भी स्पष्ट वर्णन है।
७. षडावश्यकाधिकार-इसमें १९३ गाथाएं हैं, जिनमें सामायिक, स्तव, वंदना, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान और कायोत्सर्ग, इन छह आवश्यकों का निरूपण है।
८. द्वादशानुप्रेक्षाधिकार-इसकी ७६ गाथाएं हैं, जिनमें साधु के वैराग्य भाव की वृद्धि के लिए अनित्य-अशरण आदि बारह अनुप्रेक्षाओं का वर्णन है।
९. अनगारभावनाधिकार-इसमें १२५ गाथाएं हैं, जिनमें अनगार-साधु के स्वरूप, लिंग, व्रत, वसति, विहार, भिक्षा आदि दश शुद्धियों का वर्णन है।
१०. समयसाराधिकार-इसमें १२४ गाथाएं हैं, जिनमें साधु को लौकिक व्यवहार से दूर रहने का उपदेश है। चारित्र और तप से ही ज्ञान की सार्थकता बतलायी है।
Jain Educationa international
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org