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शास्त्रों के सूक्ष्म परिशीलन से व्युत्पत्तिमती उत्तम कवयित्री हैं। उनमें कारयित्री प्रतिभा अनोखी है। आचार्य अजितसेन ने कविस्वरूप का जो विशद विवेचन अलंकारचिन्तामणि में किया है, पूज्य माताजी में वह अक्षरशः दृष्टिगोचर होता है उनके द्वारा प्रणीत स्तोत्रों में शान्तरस एवं वैदर्भी रीति प्रमुख रूप से है। प्रसाद गुण सर्वत्र सद्यः अर्थ की प्रतीति में साधन है तो माधुर्य के कारण शब्द नाचते से प्रतीत होते हैं। सूक्तियों के समावेश ने स्तोत्रों में और अधिक रमणीयता ला दी है। इस प्रसङ्ग में कतिपय सूक्तियाँ द्रष्टव्य है
मुनिचर्या
(यतिक्रियाकलाप)
इस प्रकार हम देखते हैं कि पूज्य गाणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी द्वारा विरचित स्तोत्रसाहित्य का विषयवस्तु की व्यापकता, सैद्धान्तिक पक्ष प्रतिपादन की विचक्षणता, अलंकारयोजना, छन्दोवैशिष्ट्य आदि के कारण भारतीय साहित्य को एक महनीय एवं स्पृहणीय अवदान है। इससे बीसवीं शताब्दी का संस्कृत एवं हिन्दी साहित्य अवश्य समृद्धतर होगा ।
वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला
संकलन एवं गणिनी आर्यिका ज्ञानमती
बिरोधसंस्थान
alsoje (A31, 32.
'न जातु विगुणेऽपि निष्ठुरवती हि माताङ्गजे ।' (श्रीशान्तिजिनस्तुति, २८.) 'पीयूषबिन्दुरपि तृप्तिकरो न किंवा ।' 'अस्त्येव वात्र महिमा महतामचिन्त्यः ।
श्रीबाहुबलिस्तोत्र ६ एवं १६)
मुनिचर्या
जिस प्रकार राष्ट्रीय संविधान में राष्ट्र के बड़े से लेकर छोटे तक समस्त अधिकारियों के लिए कुछ आवश्यक नियम-कानून निश्चित किए गए हैं, उसी प्रकार जैन साधुओं के लिए भी पूर्वाचार्यों ने मूलाचार, आचारसार, चारित्रसार, अनगार धर्मामृत आदि संहिताग्रंथों में कुछ आवश्यक नियम बनाये हैं। जैसे रीढ़ की हड्डी हमारे शरीर की आधार शिला है, नींव मकान की आधारशिला होती है, उसी प्रकार साधु-सन्त हमारे समाज के सच्चे आधार होते हैं। इनकी चर्चा जब तक निर्दोष, निर्मल बनी रहेगी, तब तक ही देश में धर्म और मानवता का संचार रहेगा। जैसे अनेक अंगों के संकलन समूह से शरीर बना है, उसी प्रकार अनेक ग्रंथों के मूलभूत सिद्धान्तों ने ही "मुनिचर्या" वृहत्काय ग्रंथ का रूप धारण कर लिया है।
सुन्दर आकर्षक बाइंडिंग के साथ-साथ ६२८ पृष्ठों का यह ग्रंथ केवल मुनि और आर्यिका की विभिन्न चर्या को अपने में समाहित किए हुए है। इसलिए मात्र साधुओं के पास ही इसे पहुँचाने का प्रयास किया जा रहा है।
इस ग्रंथ का मंगलाचरण मंगलमंत्र णमोकार से किया गया है, क्योंकि प्रातःकाल उठते ही सर्वप्रथम णमोकार मंत्र ही प्रायः सभी साधु पढ़ते हैं। संस्कृत, प्राकृत भक्तियाँ एवं दैवसिक (रात्रिक) पाक्षिक प्रतिक्रमण आदि सभी पाठ इस ग्रंथ में "क्रिया कलाप" ग्रंथ के आधार से ही लिए गए है, अतः इसमें जहाँ कहीं अरिहन्तार्ण और अरहन्ताणं ऐसे दो तरह के पाठ आए हैं, पूज्य माताजी ने उन्हें ज्यों के त्यों रखे है, उसमें एकरूपता लाने का प्रयास नहीं किया है, क्योंकि पूर्वाचार्यों की कृति में संशोधन परिवर्तन या परिवर्द्धन करना उनकी प्रतिभा के सर्वदा विरुद्ध है, अर्थात् वे किचित् भी परिवर्तन पसंद नहीं करती है।
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समीक्षिका आर्थिका चन्दनामती
प्रातः काल से उठकर रात्रि विश्राम तक प्रत्येक प्राणी कुछ न कुछ आचरण-क्रिया-चर्या करते देखे जाते हैं, जो कि उनकी दैनिक चर्या कहलाती है। इसी चर्या की श्रृंखला में हमारा समीक्ष्य ग्रंथ है - "मुनिचर्या । "
इस ग्रंथ में तीन खंड है। प्रथम खंड में साधुओं की सुबह से लेकर रात्रि तक करने वाली नित्य क्रियाएं है, जिसमें अहोरात्र के २८ कायोत्सर्ग के अनुसार ही क्रियाओं की प्रधानता है। ये २८ कायोत्सर्ग प्रतिदिन प्रत्येक साधु को करने आवश्यक होते हैं। प्रातःकाल उठते ही सबसे पहले जो स्वाध्याय किया जाता है उसे वैरात्रिक या पश्चिमरात्रिक स्वाध्याय कहते हैं। इस एक स्वाध्याय में प्रारंभ और समापन के ३ कायोत्सर्ग माने गए हैं, जो ग्रंथ के पृ. १६ से २२ तक द्रष्टव्य हैं।
इसके पश्चात् प्रायः साधुसंघों में सामायिक एवं पुनः प्रतिक्रमण की परंपरा देखी जाती है, किन्तु आगमानुसार तो पहले रात्रिक प्रतिक्रमण करना चाहिए, पुनः सामायिक करना चाहिए। एक विषय इस ग्रंथ में विशेष द्रष्टव्य है कि वैरात्रिक स्वाध्याय के बाद और रात्रिक प्रतिक्रमण से पहले पौर्वाहिक
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