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वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला
'सम्मत्तणाणचरणे जो भत्तिं कुणइ सावगो समणो।
तस्स दु णिव्वुदिभत्ती होदित्ति जिणेहि पण्णत्तं ॥' (कुंद. १५) श्रावकधर्म अधिकार में अष्टप्राभृत, रयणसार, द्वादशानुप्रेक्षा, नियमसार, प्रवचनसार तथा मूलाचार की गाथायें संगृहीत हैं। इनके अध्ययन से स्पष्ट होता है कि दान और पूजा श्रावक का प्रमुख धर्म है। इनके बिना व्यक्ति श्रावक नहीं हो सकता है। पात्रापात्र का विचार किये बिना श्रावक को मुनि के लिए आहारदान देना योग्य है। रयणसार की चौदहवीं गाथा में कथित इसी भाव को उपासकाध्ययन में 'भुक्तिमात्रप्रदाने तु का परीक्षा तपस्विनाम्' कहकर समुद्घाटित किया गया है। अतएव समाज को एकान्तवादियों के कुप्रचार से बचकर मुनि-आर्यिकाओं को भक्तिभाव से आहार देना ही चाहिए। आज कुछ तथाकथित आत्मवादी अकालमृत्यु का शाब्दिक प्रतिषेध करके लोगों को पुरुषार्थ से विमुख एवं अकर्मण्य बनाकर एकान्तवह्नि में ढकेलने का कुत्सित प्रयास कर रहे हैं। अतएव मुमुक्षुओं को भावप्राभृत की इस पच्चीसवीं गाथा को हृदयङ्गम जरूर कर लेना चाहिए, जिसमें विष, वेदना, रक्तक्षय, भय, शस्त्र, संक्लेश, आहारनिरोध और श्वासोच्छास को आयु क्षीण होने का कारण माना गया है।
मुनिधर्म सरागचारित्र अधिकार में द्वादशानुप्रेक्षा, नियमसार, समयसार, मूलाचार, प्रवचनसार एवं मोक्षप्राभृत से गाथायें संकलित हैं। इनमें सरागचारित्र के विविध पक्षों के समुद्घाटन के साथ एकलविहारी मुनि की पात्रता-अपात्रता, मुनिनिन्दक का भववन में परिभ्रमण तथा पंचमकाल के अन्त तक आत्मस्वभावी मुनिराजों के सद्भाव का कथन किया गया है। मोक्षपाहुड़ की सतत्तरवी गाथा में स्पष्टतया कहा गया है कि आज भी मुनि इन्द्रपद और लोकान्तिक देव पद को प्राप्त कर सकते हैं तथा वहाँ से च्युत होकर निर्वाण पा सकते हैं
'अज्ज वि तिरयणसुद्धा अप्पा झाए वि लहहि इंदत्तं ।
लोयंतियदेवत्तं तत्थ चुदा णिब्बुदिं जंति ॥' (कुंदकुंद, ५६) वीतरागचारित्राधिकार में नियमसार, प्रवचनसार, पञ्चास्तिकाय, द्वादशानुप्रेक्षा, समयसार, रयणसार और सूत्र-प्राभृत से गाथायें संग्रह की गई है। इनमें अधिकांश गाथायें समयसार की हैं। इसमें प्रधानतया निश्चय चारित्र और निश्चय मोक्षमार्ग का कथन है। निश्चय के साधन के रूप में व्यवहार मोक्षमार्ग का भी विवेचन हुआ है। व्यवहारनय की उपयोगिता समयसार की छिहत्तरवी गाथा से एकदम स्पष्ट है, जिसमें कुंदकुंदाचार्य ने कहा है कि व्यवहार के बिना परमार्थ का उपदेश करना उसी प्रकार असंभव है, जिस प्रकार अनार्य को अनार्यभाषा के बिना कुछ भी समझाना असंभव है
'जह णवि सक्कमणज्जो अणजभासं विणा उ गाहेड़ें।
तह ववहारेण विणा परमत्थुवएसणमसक्कं ॥" (कुन्द.७६) व्यवहार एवं निश्चय की भूतार्थता एवं अभूतार्थता के विषय में समयसार की ७७वीं गाथा की जयसेनाचार्यकृत टीका जिज्ञासुओं द्वारा द्रष्टव्य एवं ध्यातव्य है। अपरमभाव (सप्तम गुणस्थान तक) में स्थित जीवों को तो कुंदकुंदाचार्य ने स्पष्ट रूप से व्यवहारनय प्रयोजनीभूत माना है। इस अधिकार में संकलित गाथाओं के अध्ययन से कुंदकुंदाचार्य की दृष्टि में निश्चय एवं व्यवहारनय की अवधारणा सुस्पष्ट हो जाती है। समयसार की संकलित ४१४वीं गाथा में तो व्यवहारनय की अपेक्षा मुनिलिङ्ग एवं श्रावकलिङ्ग को मोक्ष का कारण कहा है तथा निश्चय ही अपेक्षा मोक्षमार्ग में किसी भी लिङ्ग को स्वीकार नहीं किया गया है। इस अधिकार के नैर्मल्यभाव से अध्ययन करने पर एकान्तवादियों के अनेक गृहीतमिथ्यात्व समाप्त हो सकते हैं।
पञ्चम फल अधिकार में प्रवचनसार, नियमसार, मूलाचार एवं द्वादशानुप्रेक्षा से संकलित ८ गाथाओं में स्पष्ट किया गया है कि शुद्धोपयोगी मुनि ही केवलज्ञान प्राप्त कर सकते हैं। पुण्य को सर्वथा हेय मानना जिनेन्द्रदेव की आज्ञा नहीं है, क्योंकि अरिहन्तपद की प्राप्ति भी पुण्य का ही फल है।
उक्त विवेचन से स्पष्ट है कि पूज्य गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी द्वारा संकलित कुंदकुंदमणिमाला भव्यजनों को संसारसागर पार कराने में वृहन्नौका है। मुमुक्षु इसको हृदयङ्गम करके मुक्तिपद को प्रशस्त कर सकते हैं। पूज्य माताजी ने शताधिक ग्रंथों के प्रणयन, संपादन एवं संकलन से भारतीय वाङ्मय की जो सेवा की है, उसे भारतीय जन-मानस यावच्चन्द्रदिवाकर विस्मृत नहीं कर सकेगा।
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