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वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला
११.शीलगुणाधिकार-इसकी २६ गाथाओं में शील के अट्ठारह हजार भेदों का वर्णन करते हुए चौरासी लाख उत्तरगुणों की चर्चा की गई है।
१२. पर्याप्त्यधिकार-इसमें दो सौ छह गाथाएं हैं, जिनमें पर्याप्ति आदि के अन्तर्गत द्रव्यानुयोग और करणानुयोग संबंधी विशद चर्चाएं की गयी है। इन चर्चाओं से ग्रंथ की गरिमा वृद्धिंगत हुई है।
सब अधिकारों की कुल गाथा संख्या १२५२ है।
वर्तमान आर्यिकाओं में प्रबुद्धतम् गिनी आर्थिक श्री १०५ ज्ञानमती माताजी ने मूलाचार ग्रंथ का विस्तृत प्रामाणिक अनुवाद कर विद्वजनों और स्वाध्यायशील भव्यजनों का बड़ा उपकार किया है। माताजी ने अपने आद्य उपोद्धात में सब अधिकारों के वर्णनीय विषय का अच्छा उल्लेख किया है। इन अधिकारों में ग्रंथकर्ता श्री वट्टकेर आचार्य ने साधु को पद-पद पर सावधान किया है। ग्रंथ का हार्द तो स्वयं स्वाध्याय करने से ही ज्ञात हो सकता है, फिर भी बीच-बीच से कुछ आवश्यक, उपयोगी विषयों की चर्चा प्रस्तुत की गई है। जो दृष्टव्य है
चत्तारि पटिक्कमणे किदियम्मा तिण्णि होंति सज्झाए।
पुवण्हे अवरहे किदियम्मा चोद्दसा होति ॥६०२ ॥ अर्थात् प्रतिक्रमण में चार कृतिकर्म, स्वाध्याय में तीन ये पूर्वान्ह और अपरान्ह से संबंधित ऐसे चौदह कृतिकर्म होते हैं।
इस गाथा की वसुनन्दि कृत आचारवृत्ति का अनुवाद करते हुए पूज्य माताजी ने लिखा है कि सामायिक स्तवपूर्वक कायोत्सर्ग करके चतुर्विंशति तीर्थंकर स्तवपर्यन्त जो क्रिया है, उसे "कृतिकर्म" कहते हैं। प्रतिक्रमण में चार कृतिकर्म और स्वाध्याय में तीन कृतिकर्म इस तरह पूर्वान्ह संबंधी कृतिकर्म सात होते हैं तथा अपरान्ह संबंधी कृतिकर्म भी सात होते हैं। ऐसे कुल चौदह कृतिकर्म होते हैं। पुनः इन कृतिकर्मों को स्पष्ट करते हुए सर्वप्रथम प्रतिक्रमण में चार कृतिकर्म बतलाती हैं।
आलोचना भक्ति (सिद्धभक्ति) करने में कायोत्सर्ग होता है, वह एक कृतिकर्म हुआ। प्रतिक्रमण भक्ति के करने में कायोत्सर्ग होता है, वह दूसरा कृतिकर्म हुआ। वीर भक्ति के करने में जो कायोत्सर्ग है, वह तृतीय कृतिकर्म हुआ तथा चतुर्विंशति तीर्थंकर भक्ति के करने में शांति के लिए जो कायोत्सर्ग है, वह चतुर्थ कृतिकर्म है।
स्वाध्याय के तीन कृतिकर्म-स्वाध्याय आदि के कृतिकर्मों का भी वर्णन आचारवृत्ति टीका में उपलब्ध है, जिसका विशेष स्पष्टीकरण पूज्य माताजी ने स्वयं के शब्दों में भी किया है
मुनि के अहोरात्र संबंधी अट्ठाईस कायोत्सर्ग कहे गये हैं। उन्हीं का यहाँ वर्णन किया गया है। यथा दैवसिक-रात्रिक इन दो प्रतिक्रमण संबंधी कायोत्सर्ग ८, त्रिकालदेव वन्दना संबंधी ६, पूर्वान्ह, अपरान्ह तथा पूर्वरात्रिक और अपररात्रिक इन चार काल में तीन बार स्वाध्याय संबंधी १२, रात्रियोग ग्रहण और विसर्जन इन दो समयों में दो बार योगभक्ति संबंधी २, कुल मिलाकर २८ होते हैं। अनगार धर्मामृत में भी इनका उल्लेख है, यथा
स्वाध्याये द्वादशेष्टा षड्वंदने ष्टौ प्रतिक्रमे ।
कायोत्सर्गा योगभक्तौ द्वौ चाहोरात्रगोचराः ॥७५ ॥ अर्थ-स्वाध्याय के बारह, वंदना के छह, प्रतिक्रमण के आठ और योगभक्ति के दो ऐसे अहोरात्र संबंधी अट्ठाईस कायोत्सर्ग होते हैं। पुनः मूलाचार की गाथा में कृतिकर्म का प्रयोग आया है।
दोणदं तु जधाजादं बारसावत्तमेव य।
चदुस्सिरं तिसुद्धं च किदियम्मं पउंजदे ॥६०३ ॥ गाथार्थ-जातरूप सदृश दो अवनति, बारह आवर्त, चार शिरोनति और तीन शुद्धि सहित कृतिकर्म का प्रयोग करें। इसका वसुनन्दि की आचारवृत्ति में स्पष्टीकरण किया गया है, किन्तु माताजी ने इसका विशेषार्थ निम्न शब्दों में प्रस्तुत किया है।
___ "एक बार के कायोत्सर्ग में यह उपर्युक्त विधि की जाती है, उसी का नाम कृतिकर्म है। यह विधि देववंदना, प्रतिक्रमण आदि सर्व क्रियाओं में भक्तिपाठ के प्रारंभ में की जाती है। जैसे देववंदना में चैत्यभक्ति के प्रारंभ में
अथ पौर्वान्हिक-देववन्दनायां पूर्वाचार्यानुक्रमेण सकलकर्मक्षयार्थं भावपूजावन्दनास्तवसमेतं श्रीचैत्यभक्तिकायोत्सर्ग करोम्यहं ।" - यह प्रतिज्ञा हुई, इसको बोलकर भूमि स्पर्शनात्मक पंचांग नमस्कार करें। यह एक अवनति हुई। अनन्तर तीन आवर्त और एक शिरोनति करके "णमो अरिहंताणं-चत्तारिमंगलं-अड्ढाइजदीव-इत्यादि पाठ बोलते हुए-दुच्चरियं वोस्सरामि" तक पाठ बोले यह "समायिकस्तव" कहलाता है। पुनः तीन आवर्त और एक शिरोनति करें। इस तरह सामायिक दण्डक के आदि और अन्त में तीन-तीन आवर्त और एक-एक शिरोनति होने से छह आवर्त और दो शिरोनति हुई । पुनः नौ बार णमोकार मंत्र को सत्ताईस श्वासोच्छवास में जपकर भूमिस्पर्शनात्मक नमस्कार करें। इस तरह प्रतिज्ञा के अनन्तर और कायोत्सर्ग के अनन्तर ऐसे दो बार अवनति हो गयी।
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