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वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला
हो गया तो आचार्य अमृतचन्द्रजी ने आत्मख्याति टीका एवं कलशकाव्यों में भाव खोले। इसके पश्चात् २०० वर्ष और व्यतीत होने के साथ ही कुछ अल्पबुद्धियों द्वारा समयसार ग्रंथ का दुरुपयोग देखकर श्रीजयसेनस्वामी ने कुन्दकुन्दाचार्य के अभिप्राय को गुणस्थानों में खोलकर महान् उपकार किया है। आज ८०० वर्षों के पश्चात् उनकी खुलासेपूर्ण टीका को लुप्तप्राय देखकर पू. ज्ञानमती माताजी ने दोनों टीकाओं की हिन्दी एक साथ एक ही ग्रंथ में स्थान देकर समयसार पाठकों को आज्ञासम्यक्त्व धारण करने की प्रेरणा दी है।
लेखिका ने स्थान-स्थान पर विशेषार्थ लिखकर अनेकों आगम के उदाहरणों द्वारा विषय को स्पष्ट करते हुए आचार्यत्रय के भावों का समादर किया है, यथा पृ. नं. ५१९ पर अमृतचंद्रसूरि के अनुसार गाथा नं. १५४ और जयसेनाचार्य के अनुसार गाथा नं. १६१ का विशेषार्थ द्रष्टव्य है
परमट्ठबाहिरा जे ते अण्णाणेण पुण्णमिच्छति ।
संसारगमणहेर्दू वि मोक्खहेउं अजाणता ॥ इस गाथा का अर्थ यही है कि “जो परमार्थ से बहिर्भूत हैं, वे अज्ञान से मोक्ष के हेतु नहीं जानते हुए संसारगमन के हेतु भी पुण्य की इच्छा करते हैं।"
इसके विशेषार्थ में आर्यिकाश्री ने खोला है कि यहाँ यह बात ध्यान रखने की है कि पुण्यक्रियाएं भले ही सम्यक्त्वसहित हों, फिर भी तत्काल में तो बंध के लिए ही कारण हैं। हाँ, परम्परा से मोक्ष के लिए कारण हैं, क्योंकि कर्मक्षय का साक्षात् कारण तो निर्विकल्प ध्यानरूप शुद्धोपयोग ही है और उस शुद्धोपयोग को प्राप्त कराने के लिए ये मुनिव्रत, बाह्यतप और आवश्यक क्रियाएं हैं, अतः ये कारण की कारण होने से परंपरा से कर्मक्षय के लिए कारण हैं। बात यह है कि पाप रूप अव्रत तो बुद्धिपूर्वक छोड़ने होते हैं और पुण्यरूप व्रत छोड़े नहीं जाते हैं, प्रत्युत् ध्यान में तन्मय होने पर ये स्वयं छूट जाते हैं। जैसे फल के आने पर फूल स्वयं झड़ जाता है, उसे तोड़ा नहीं जाता है और यदि फल आने के पहले ही फूल को तोड़ देवें तो उसमें फल आएगा ही नहीं। ठीक यही स्थिति यहाँ है, यदि निर्विकल्प ध्यान होने के पहले ही पुण्य क्रियाएं छोड़ दी जावें तो पुनः निर्विकल्प ध्यान की प्राप्ति होगी ही नहीं। देखो, तीर्थंकरों ने भी निर्विकल्प ध्यान की सिद्धि के लिए हजारों वर्ष तपश्चरण किया है। समंतभद्र स्वामी ने भी कहा है
बाह्यं तपः परमदुश्चरमाचरंस्त्व-माध्यात्मिकस्यतपसः परिबृहणार्थम् । अर्थात् हे भगवन्! आध्यात्मिक तप की वृद्धि के लिए आपने घोरातिघोर तप को तपा था इत्यादि रूप से इस भावार्थ में दोनों आचार्यों के भावों को अच्छी तरह खोला गया है। यह तो रचनाकार की प्रतिभा शक्ति का ही द्योतक होता है कि वे प्राचीन गुरु परम्परा को पुष्ट करने हेतु किन-किन आगम ग्रन्थों को प्रमाण दे सकते हैं।
पू० ज्ञानमती माताजी तो यूँ भी इस कार्य में सिद्धहस्त मानी जाती रही हैं क्योंकि उन्होंने चारों अनुयोगों का तलस्पर्शी ज्ञान अर्जित किया है। पूर्व जन्मों के ज्ञानदान के फलस्वरूप ही उनको यह प्रथम श्रेय प्राप्त हुआ है क्योंकि चार कक्षा की लौकिक शिक्षा प्राप्त करने वाली किसी भी नारी से ऐसी आशा नहीं की जा सकती है। अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग ही लेखिका के जीवन का प्रमुख अंग रहा है। इनकी कठिन से कठिन और सरल से सरल कृतियों को देखकर कोई पाठक सहज अनुमान नहीं लगा सकता है कि अष्टसहस्री जैसे क्लिष्ट न्यायग्रन्थ का अनुवाद करने वाली ज्ञानमती माताजी ने ही बालविकास और उपन्यास शैली का साहित्य रचा है। कहाँ न्याय और सिद्धांत की उच्चप्रौढ़ भाषा और कहाँ बालसुलभ सरल हिन्दी भाषा? यह उनकी आलंकारिक विद्या का ही प्रतीक है। कुन्दकुन्दस्वामी ने भी जहाँ निर्विकल्प ध्यान जैसी उच्च अवस्था का प्रतिपादन करने वाले समयसार, प्रवचनसार, नियमसार ग्रन्थ लिखे, वहीं आचारग्रन्थ मूलाचार, रयणसार, अष्टपाड़ आदि भी लिखे । लेखन शैली प्रसंग के अनुसार अलग-अलग हैं अतः कुछ लोग दिग्भ्रमित भी हो जाते हैं। आचार्य श्री के अभाव में तो प्राचीन शिलालेखों को ही प्रमाण मानना पड़ता है। किन्तु आज की रचयित्री तो हम सबके पुण्ययोग से विद्यमान हैं अतः उनकी किसी कृति में भी संदेह होने पर तत्काल समाधान प्राप्त हो सकता है। वैसे ज्ञानमती माताजी ने कई ग्रन्थों की प्रशस्तियों में अपना साधारण-सा परिचय और गुरुपरम्परा का उल्लेख भी किया है। साहित्यिक क्षेत्र में इनका प्रवेशकाल सन् १९५५ से माना जा सकता है। जब इन्होंने क्षुल्लिका वीरमती की अवस्था में म्हसवड़ (महाराष्ट्र) में सहस्रनाम के १००८ मंत्र बनाए थे, उन मंत्रों की पुस्तक क्षुल्लिका विशालमतीजी की प्रेरणा से म्हसवड़ में ही प्रकाशित हुई थी जो कि अब अप्राप्य है नमूने के तौर पर जम्बूद्वीप की लाइब्रेरी में १-२ पुस्तकें हैं। इसके पश्चात् १० वर्षों का काल मुख्य रूप से शिष्यों के संग्रह और उनके पठन-पाठन में व्यतीत हुआ। सन् १९६५ में आर्यिका श्री ज्ञानमती माताजी के रूप में आपने अपनी पांच आर्यिका क्षुल्लिका शिष्याओं के साथ कर्नाटक के श्रवणबेलगोल तीर्थ पर चातुर्मास किया। वहां बाहुबलि के चरणसानिध्य से वास्तविक साहित्य सृजन का शुभारम्भ हुआ। "सिद्धिप्रदं... "इत्यादि संस्कृत बाहुबलि स्तोत्र के ५२ पद्यों ने सचमुच ही आपको सरस्वती की सिद्धि प्रदान की है। इसलिए सन् १९६५ से ज्ञानमती माताजी द्वारा साहित्य रचना का प्रारंभिक काल भी माना जा सकता है। २५ वर्ष की अवधि में १५० से अधिक ग्रन्थों का सृजन इनकी शुद्धप्रासुक लेखनी से हुआ है। ___इसी श्रृंखला में यह ११५ नं. का ग्रन्थ समयसार हैं इसमें शान्तरस की प्रधानता है जब योगी जन परमशान्तभाव का आश्रय लेते हैं तब वे ही असली समयसार को प्राप्त करते हैं। प्रस्तुत समयसार ग्रन्थ का १-१ शब्द पठनीय और चिन्तनीय है ताकि अपने पथ से हम स्खलित न होने पावें। इसमें जो आचार्य अमृतचन्द्रस्वामी ने कलशकाव्य रचे हैं उनमें अगाध रहस्य छिपा हुआ है प्रत्येक कलशकाव्य कण्ठस्थ करने योग्य है। इन कलशों का पद्यानुवाद पूज्य आर्यिका श्री अभयमती माताजी ने किया था जिन्हें इस ग्रन्थ में प्रत्येक कलशकाव्यों के साथ नीचे प्रकाशित किया गया है। ज्ञानामृत प्रदात्री, भवजलधितारिका, पूज्य गणिनी श्री ज्ञानमती माताजी की प्रेरणा से मैंने समयसार की गाथाओं का पद्यानुवाद किया, उन पद्यों को भी गाथाक्रम से यथास्थान
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