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वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला
वो ज्ञान दर्श और चरित्र रूप धरम है। विपरीत के परिहार हेतु सार शब्द है।
अतएव नियम से ये नियमसार सार्थ है। उपर्युक्त गाथा में कुन्दकुन्द आचार्य ने 'नियम' शब्द का प्रयोग सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र रूप मोक्षमार्ग के अर्थ में किया है। यह प्रयोग सर्वथा नवीन एवं विशिष्ट है। अन्यत्र प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में ऐसा प्रयोग कहीं देखने को नहीं मिलता है। कुन्दकुन्द ने नियम को मोक्ष का उपाय तथा उसका फल परमनिर्वाण बताया है।
कुन्दकुन्द ने नियमसार में जीव, पुद्गल धर्म, अधर्म, आकाश और काल, इन छह द्रव्यों को 'तत्त्वार्थ' कहा है। ये तत्त्वार्थ विविध गुण और पर्यायों से संयुक्त बताये हैं। यहाँ तत्त्वार्थ शब्द को परिभाषित नहीं किया गया है। पश्चात् क्रमशः प्रत्येक तत्त्वार्थ का निश्चय एवं व्यवहार नय की दृष्टि से सम्यक् विवेचन किया है। कहा है कि आपके मुख से निकले हुए पूर्वापर दोष से रहित शुद्ध वचन आगम हैं तथा आगम में कहे गये वचनों को तत्त्वार्थ कहते हैं। इस प्रकार नियमसार में तत्त्वार्थ के रूप में द्रव्यों के श्रद्धान को सम्यग्दर्शन कहा गया है। इसी विषय को सरल एवं भावपूर्ण शब्दों में व्यक्त करते हुए माताजी ने लिखा है
इनके मुखारविन्द से निकले हुए वचन । जो पूर्व अपर दोष रहित शुद्ध हैं वरण ॥ आगम ये नाम उसका ऋषियों ने बताया । उसमें कहे गये को तत्त्वार्थ है गाया ॥ (८) जो जीव पुद्गलकाय, धर्म और अधर्म हैं। आकाश और काल ये तत्त्वार्थ कहे हैं। नानागुणों व पर्ययों से युक्त ये रहें।
इन्हीं छहों को द्रव्य नाम से मुनी कहें ॥(९) नियमसार में गाथा ७७ से ८१ तक निश्चयप्रतिक्रमण का विवेचन किया गया है। इन पांच गाथाओं को टीकाकार ने 'पंचरत्न' की संज्ञा दी है। इन गाथाओं में बताया गया है कि वस्तुतः यह जीव नारकी, तिर्यञ्च, मनुष्य आदि पर्याय रूप ही नहीं है। इन गाथाओं के पद्यानुवाद में शंभुछंद का प्रयोग किया गया है अतः वह अधिक भावपूर्ण तथा ज्ञेय बन गया है। इनमें से कुछ की बानगी देखिए
मैं नहीं नारकी नहिं तिर्यक् नहिं मनुज नहीं हूँ देव कभी। नहिं इन पर्यायों का कर्ता नहिं इन्हें कराने वाला भी॥ नहिं इनके करने वालों का अनुमोदन करने वाला हूँ। मैं तो निश्चय से चिन्मूरत निजतनु से भिन्न निराला हूँ॥७७ ॥ मैं बालक नहिं मैं वृद्ध नहीं मैं नहीं तरुण हूँ इस जग में। नहिं इनका कारण हो सकता यह सब पुद्गल के रूप बने । नहिं इन पर्यायों का कर्ता, नहिं कभी कराने वाला हूँ। नहिं इनका अनुमोदन कर्ता मैं सबसे भिन्न निराला हूँ॥७९ ॥ मैं क्रोध नहीं मैं मान नहीं मैं नहिं माया मैं लोभ नहीं। नहीं इनका कर्ता नहीं कराने-वाला नहिं अनुमोदक ही॥ ये सब कर्मोदय से होते और कर्म नहीं मेरे कुछ भी।
मैं निश्चयनय से पूर्ण शुद्ध नहिं किंचित् हुआ अशुद्ध कभी ॥८१॥ कुन्दकुन्द के ग्रन्थों में "वोच्छामि" एवं "भणियं" आदि क्रियावाचक शब्दों का प्रयोग मिलता है। इस दृष्टि से नियमसार के उपलब्ध प्रकाशित संस्करणों में "मएकदं" शब्द का उल्लेख विशेष महत्त्वपूर्ण है। यहाँ कहा गया है कि पूर्वापर दोष रहित जिनोपदेश को जानकर मैंने अपनी भावना के निमित्त नियमसार नामक श्रुत को किया है।
अंत में तीन दोहों द्वारा आर्यिका ज्ञानमती माताजी ने अपने नियमसार-पद्यानुवाद का समापन किया है। जिसमें इस नियमसार की हिन्दी भाषामय छन्दबद्ध रचना का कारण अपनी भाव शुद्धि बताया है और यह पद्यमय रचना संसारी जीवों को संसार पार करने का सेतु बने, ऐसी कामना की है।
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