________________
गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ
[४२१
श्री पार्श्वजिनस्तुति में १२ पृथ्वी छन्द तथा १ अनुष्टुप् छन्द है। इन दोनों स्तोत्रों में उपसर्ग विजय रूप पारम्परिक घटना का मनोहारी चित्रण किया गया है। शब्दों का चयन इतना उत्तम है कि घटना चलचित्र की तरह सामने उपस्थित हो जाती है। महावीर भगवान् की तीन स्तुतियाँ हैं। प्रथम वीरजिनस्तुति में तीन-तीन वसन्ततिलका, शिखरिणी, द्रुतविलम्बित एवं मन्दाक्रान्ता, सात श्री, तीन तोटक, छह भुजंगप्रयात, सात पृथ्वी और अन्त में एक आर्या, कुल ३६ पद्य हैं। इसमें महावीर के वंश, माता-पिता आदि के कथन के साथ उनकी स्तुति करते हुए उनके जीवन की विविध वीरतापूर्ण घटनाओं का चित्रण किया गया है। इसके अठारहवें पद्य में उल्लेख अलंकार, उन्नीसवें में उपमा तथा छब्बीसवें में लाटानुप्रास का सुन्दर प्रयोग हुआ है। लाटानुप्रास की छटा द्रष्टव्य है
'महाधीरधीरे महावीरवीरं, महालोकलोकं महाबोधबोधम्।
महापूज्यपूज्यं महावीर्यवीर्य, महादेवदेवं महान्त महामि ।।२६ ।' द्वितीय महावीरस्तवन पांच स्रग्धरा एवं एक अनुष्टुप् छन्द में है। इसमें उनकी कल्याणकतिथियाँ एवं कल्याणकस्थान वर्णित हैं। तृतीय महावीरस्तुति भरतेशवैभवकाव्य की तर्ज पर सांगत्यराग में रचित है। इसके बारह पद्यों में महावीर की उदात्त स्तुति की गई है। इसके आगे एक समष्टिरूप से तीर्थङ्करस्तुति है। इसमें २५ अनुष्टुप् छन्द हैं। २४ छन्दों में क्रमशः २४ तीर्थंकरों का संक्षिप्त स्तवन है तथा अन्तिम एक पद्य में स्तुति की प्रशस्ति है । कुन्थुनाथ भगवान् की स्तुति करते हुए कहा गया है कि कुन्थुजीवों की अहिंसा से आप कुन्थुजिन हुये। हे कुन्थुनाथ! आप नित्य मेरी रक्षा करें
'अहिंसा कुन्थुजीवेषु कृत्वा कुन्थुजिनोऽभवत्।
रक्षां विधेहि मे नित्यं कुन्थुनाथ! नमोऽस्तु ते ।।१७। तीर्थङ्करो की स्तुति के बाद चैत्यवन्दना एवं सम्मेदशिखर वन्दना है। पहले चैत्यवन्दना हिन्दी के नौ पद्यों में है तथा फिर त्रैलोक्य चैत्यवन्दना त्रेसठ आर्यास्कन्धों में है। इसका हिन्दी पद्यानुवाद भी दिया गया है। इनमें तीनों लोकों के जिनभवनों की वन्दना की गई है। जिनभवनों की इस वन्दना में माताजी का असीम भक्तिभाव परिलक्षित होता है। अन्तिम तीन पद्यों में पञ्चपरमेष्ठी, चारित्रचक्रवर्ती आचार्य शान्तिसागर, आचार्यवीरसागर एवं परम्परागत अन्य आचार्यों एवं मुनियों को वन्दन करते हुए चैत्यवन्दना का फल कहा गया है। श्री सम्मेदशिखरवन्दना ८४ अनुष्टुप् एवं आर्याओं में रचित है। इसमें सम्मेदशिखर से मुक्ति पाने वालों के साथ-साथ अन्य सिद्धक्षेत्रों की भी स्तुति की गई है। यह स्तुति वर्णनप्रधान है, अतः इसमें काव्यात्मक वैभव अधिक नहीं है। ___चैत्यवन्दन एवं तीर्थवन्दन के पश्चात् पूज्य माताजी द्वारा विरचित एक महत्त्वपूर्ण स्तवन बाहुबलिस्तोत्र है। ५९ वसन्ततिलका छन्दों में गुम्फित तथा हिन्दी पद्यानुवाद एवं अर्थ से समन्वित इस स्तोत्र में ऋषभदेव भगवान् के पुत्र बाहुबलि की स्तुति अत्यन्त शोभन एवं आलंकारिक है। इसमें उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा, अनन्वय, निदर्शना आदि औपम्यमूलक अर्थालङ्कारों की चारु स्वाभाविक संयोजना है। निदर्शना का एक सुन्दर प्रयोग द्रष्टव्य है, जिसमें बाहुबलि की स्तुति को अन्धे द्वारा गगनचारी पक्षियों की गणना के समान कहा है
'किं शक्यते गुणकथा जिन! मद्विधैस्ते साक्षादहो सुरगुरुः क्षमते न वक्तुम् । उद्गच्छतो वियति पक्षिगणानचक्षुः
मीयेत चेबजति किं नहि हास्यतां सः॥५॥' सप्तम श्लोक में बाहुबलि को ही उपमेय और उन्हें ही उपमान बनाकर अनन्वय अलंकार की अनोखी प्रस्तुति की गई है--
के कामदेव! शुभवर्णहरित्सुगात्र! केनोपमा तवकरोमि समोऽपि कश्चेत् । नूनं भवान्खलु भवादृश एव लोके
तृप्यन्ति नो जनदृशो मुहुरीक्षमाणाः ॥७॥' इसी प्रकार दशम श्लोक में प्रयुक्त उत्प्रेक्षा तथा तेईसवें श्लोक में प्रयुक्त रूपक सहृदयों के हृदय को आह्लादित करता है। इस स्तोत्र में कर्म सिद्धान्त के सोदाहरण वर्णन के साथ अन्य जैनसिद्धान्तों का भी हृदयहारी प्रतिपादन है।
तदनन्तर २४ शार्दूलविक्रीडित छन्दों में निबद्ध मंगलचतुर्विंशतिका पाँच उपेन्द्रवज्रा छन्दों में निबद्ध मंगलस्तुति, नव अनुष्टुप् वृत्तों में गुम्फित मंगलाष्टक तथा आठ इन्द्रवज्रा एवं एक अनुष्टुप् वृत्त में प्रणीत स्वस्ति स्तवन है। भाषा एवं भावों की दृष्टि से इन स्तवनों का महत्त्व कम नहीं है। मंगलस्तुति के निम्नांकित पद्य में व्यतिरेक अलङ्कर की छटा एवं भाव संयोजना अत्यन्त मनोरम है
"सुचन्द्रांशुगन्धाम्बुतः शीतला या,
Jain Educationa international
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org