________________
गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ
[४०७
बाद में तीन आवर्त, एक शिरोनति करके "थोस्सामि स्तव' पढ़कर अन्त में तीन आवर्त, एक शिरोनति करें। इस तरह चतुर्विंशति स्तव के आदि और अन्त में तीन-तीन आवर्त और एक-एक शिरोनति करने से छह आवर्त और दो शिरोनति हो गयीं। ये सामायिक स्तव संबंधी छह आवर्त, दो शिरोनति तथा चतुर्विंशतिस्तव संबंधी छह आवर्त, दो शिरोनति मिलकर बारह आवर्त और चार शिरोनति हो गयी।
इस तरह एक कायोत्सर्ग के करने में दो प्रणाम, बारह आवर्त और चार शिरोनति होती हैं।
जुड़ी हुई अंजुलि को दाहिनी तरफ से घुमाना सो आवर्त का लक्षण है। यहाँ पर टीकाकार ने मन वचन काय की शुभप्रवृत्ति का करना आवर्त कहा है, जो कि उस क्रिया के करने में होना ही चाहिए।
___इतनी क्रियारूप कृतिकर्म को करके "जयतु भगवान्" इत्यादि चैत्यभक्ति का पाठ पढ़ना चाहिए। ऐसे ही जो भी भक्ति जिस क्रिया में करना होती है तो यही विधि की जाती है। मूलाचार के चतुर्थ अध्याय, समाचाराधिकार में मुनि विहार के प्रसंग में कहा है कि एकल विहारी कौन हो सकता है?
"तवसुत्तसत्तएगत्तभावसंघडणधिदिसमग्गो य।
पविआआगमबलिओएयविहारीअणुण्णादो" ॥१४९ ॥ अर्थात् जो बारह प्रकार के तपों में तत्पर रहते हैं, द्वादशांग और चौदहपूर्व के ज्ञाता हैं, अथवा क्षेत्र-काल के अनुसार आगम के ज्ञाता हैं, प्रायश्चित्त शास्त्र में कुशल है, शारीरिक शक्ति से युक्त है, निर्मोह है, एकत्व भावना का सदा चिन्तन करते हैं, संहनन से सुदृढ़ हैं, धैर्यशाली है तथा क्षुधादि परीषहों के सहन करने में समर्थ है, उसे एकलविहारी होने की आज्ञा है। वह भी गुरु की आज्ञानुसार एकलविहार को स्वीकृत करता है। इसी समाचाराधिकार में एकलविहारी साधु के दोषों का वर्णन करते हुए कहा गया है कि
आयरिय कुलं मुच्चा विहरदि समणा य जो दु एगागी।
ण य गेण्हदि उपदेस पाप स्स्मणोत्ति वुच्चदि दु॥ आचार्य कुल को छोड़कर जो श्रमण एकाकी विहार करता है और गुरु के उपदेश को ग्रहण नहीं करता वह पाप श्रमण है।
"सच्छंदगदागदीसयणणिसयणादाणभिक्खवोसरणे।
सच्छंदजंपरोचि य मा मे सत्तूवि एगागी" ॥१५० ॥ · गमन, आगमन, शयन, बैठना, किसी वस्तु को ग्रहण करना, आहार लेना और मलमूत्रादि विसर्जन करना-इन कार्यों में जो स्वच्छंद प्रवृत्ति करने वाला है, और बोलने में भी स्वच्छंद रुचि रखता है, ऐसा मेरा शत्रु भी एकविहारी न होवे।
मूलाचार ग्रंथ पर सिद्धान्त चक्रवर्ती वसुनन्दि आचार्य ने आचारवृत्ति नामक संस्कृत टीका लिखी है। यह वसुनन्दि आचार्य वसुनन्दि श्रावकाचार के कर्ता हैं तथा १२ वीं शताब्दी के आचार्य हैं। दूसरी टीका मेघचन्द्राचार्य रचित कनड़ भाषा में है। इस टीका का नाम "मुनिजन चिन्तामणि' है। वसुनन्दि कृत टीकावाली प्रति में १२५२ गाथाएं हैं और मेघचन्द्राचार्य कृत कन्नड़ टीका में १४०३ गाथाएं हैं। ___मूलाचार के कर्ता के विषय में आचारवृत्ति के कर्ता वसुनन्दि आचार्य ने वट्टकेराचार्य, वट्टकेर्याचार्य और वढेरकाचार्य का नामोल्लेख किया है। पहला रूप टीका के प्रारंभिक प्रस्तावना वाक्य में, दूसरा ९ वें अधिकार, १० वें और ११ वे अधिकार के संधि वाक्यों में तथा तीसरा ८ वें अधिकार के संधि वाक्य में किया है। स्व. पं. नाथूराम जी प्रेमी, पं. कैलाशचंद जी तथा पं. परमानन्द जी शास्त्री ने भी वट्टकेराचार्य को ही मूलाचार का कर्ता घोषित किया है। माणिकचन्द्र ग्रंथमाला से प्रकाशित मूलाचार की प्रति के अन्त में प्रकाशित निम्नलिखित पुष्पिका वाक्य है
"इति मूलाचारविवृतौ द्वादशोध्यायः । कुन्दकुन्दाचार्य प्रणीत मूलाचारख्यविवृतिः । कृतिरियं वसुनन्दिनः श्रमणस्य" इस पुष्पिका वाक्य के आधार पर तथा मेघ चन्द्राचार्य कृत मुनि जनचिन्तामणि टीका के प्रस्तावना में "कोण्डकुन्दाचार्येण इस उल्लेख से स्व. पं. जिनदास जी फडकुले सोलापुर ने मूलाचार को कुन्दकुन्दाचार्य की कृति माना है तथा इन्हीं के नाम से विरचित मूलाचार की टीका के आधार पर गणिनी आर्यिका ज्ञानमती जी ने भी इसे कुन्दकुन्दाचार्य की कृति मानकर अपने आद्यउपेद्धात में उनका परिचय दिया है। आर्यिकाओं की चर्चा करते हुए मूलाचार में कहा गया है कि
एसो अजाणंपि य सामाचारो जंहक्खिओ पुव्वं ।
सव्वहिम अहोरत्ते विभासिदव्वो जधाजोगं ॥१८७॥ जहाजोगं-यथायोग्यं आत्मानुरूपो वृक्षमूलादिरहितः । सर्वस्मिन्नहोरात्रे एषोपि सामाचारो यथायोग्यमार्यिकाणां आर्यिकाभिर्वा प्रकटयितव्यों विभावयितव्यों वा यथाख्यातः पूर्वस्मिन्निति। 'अर्थात् पूर्व में जैसा कहा गया है, वैसा ही यह समाचार आर्यिकाओं को भी सम्पूर्ण अहोरात्र में यथायोग्य करना चाहिए।
Jain Educationa international
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org