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गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ
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अष्टसहस्री की स्याद्वाद चिन्तामणि टीका
समीक्षक-डॉ० रमेशचन्द्र जैन, बिजनौर
गृद्धपिच्छाचार्य उमास्वामि कृत तत्त्वार्थसूत्र उपलब्ध जैन संस्कृत साहित्य में आद्य रचना है। यह सूत्रात्मक शैली में रची गई है। इसके आदि में 'मोक्षमार्गस्य नेतारं' इत्यादि पद्यमयमङ्गल पाठ है। इस पाठ में मोक्षमार्ग के नेता, कर्मरूपी पर्वतों का भेदन करने वाले तथा विश्वतत्त्वों के ज्ञाता को नमस्कार किया गया है। इसी के व्याख्यान स्वरूप आचार्य समन्तभद्र ने देवागम स्तोत्र की रचना की । देवागम स्तोत्र का दूसरा नाम आप्तमीमांसा भी है। इसमें आप्त की मीमांसा के बहाने स्वामी समन्तभद्राचार्य ने अपने समय तक प्रचलित सभी वादों की समीक्षा कर समग्र भारतीय दर्शन का आलोडन विलोडन किया है। आप्तमीमांसा में ११४ कारिकायें हैं। इनका कथन संक्षिप्त है तथापि इसमें निर्दोष सर्वज्ञ की संस्थिति, भावैकान्त अभावैकान्त की सदोषता, अस्तित्व धर्म की नास्तित्व धर्म के साथ अनिवार्यता, वस्तु की अर्थ क्रियाकारिता है। द्वैत और अद्वैत एकान्त की सदोषता, ज्ञान और ज्ञेय की भिन्नभिन्नता सामान्यविशेष तथा एकत्व-पृथक्त्व एकान्तों की सदोषता, नित्यैकान्त-अनित्यैकात्त की सदोषता कार्य-कारणादि का एकत्व मानने पर दोष सिद्धि के आपेक्षिक-अनापेक्षिक एकान्तों की सदोषता, हेतु तथा आगम से निर्दोष सिद्धि, अन्तरङ्गार्थ और बहिरङ्गार्थ एकान्त की सदोषता,जोव शब्द की संज्ञा होने से
सबाह्यार्थता, दैव और पौरुषैकान्त की सदोषता, दूसरे में दुःख-सुख से पाप पुण्य के एकान्त की सदोषता स्व में दुःख-सुख से पुण्य-पाप के एकान्त की सदोषता, पुण्य पाप की निर्दोष व्यवस्था, अज्ञान से बन्ध और अल्पज्ञान से मोक्ष के एकान्त की सदोषता, शुद्धि-अशुद्धि दो शक्तियों की सादि-अनादि व्यक्तिप्रमाणों का फलस्यात् निपात की व्यवस्था, स्याद्वाद का स्वरूप, नय हेतु का लक्षण, द्रव्य का स्वरूप, निरपेक्ष और सापेक्ष नय, स्याद्वाद और केवल ज्ञान में भेद निर्देश इत्यादि विषयों की चर्चा है। उभयैकान्त तथा अवक्तव्यैकान्त का भी यहाँ भिन्न-२ स्थानों पर निषेध किया गया है। इस प्रकार यह एक सर्वाङ्ग उपयोगी रचना है।
देवागम स्तोत्र की उपयोगिता लोकप्रियता एवं महत्ता को ध्यान में रखते हुए अनेक आचार्यों ने इस पर व्याख्यायें लिखीं सम्प्रति तीन व्याख्यायें उपलब्ध हैं-१. देवागम विवृति या अष्टशती भाष्य २. देवागमालङ्कार या अष्टसहस्री और ३. देवागमवृत्ति । ये क्रमशः भट्ट अकलङ्कदेव, आचार्य विद्यानन्द और आचार्य वसुनन्दि द्वारा लिखी गई हैं।
देवागम की सबसे प्राचीन और दुरूह व्याख्या देवागम विवृत्ति या आप्तमीमांसा भाष्य है। आठ सौ श्लोक प्रमाण रचना होने से इसे अष्टशती कहते हैं। इसके गूढ अर्थों को समझने में कष्टशती का अनुभव होता है।
देवागमालङ्कार को आप्तमीमांसालङ्कृति और आप्तमीमांसालङ्कार भी कहा जाता है। आठ हजार श्लोक प्रमाण रचना होने से स्वयं ग्रन्थकार ने इसे अष्ट सहस्री कहा है। उनका कहना है
श्रोतव्याष्टसहस्री श्रुतैः किमन्यैः सहस्रसंख्यानैः ।
विज्ञायेत ययैव स्वसमय परसमय सद्भावः ।। अर्थात् अष्ट सहस्री सुनना चाहिए, हजार शास्त्रों को सुनने से क्या लाभ है? जिस अष्टसहस्री के सुनने से स्वसमय और परसमय का सद्भाव जाना जाता है। अष्टशती में अन्तर्निहित गूढ पदों की व्याख्या के लिए ही इसकी रचना की गई थी। इसकी जोड़ की रचना समग्र भारतीय दर्शनों में दूसरी नहीं है। यह अष्टसहस्री भी इतनी कठिन है कि विद्वानों को भी इसे समझने में कष्टसहस्री का अनुभव होता है। इसके अर्थों को विस्तार से समझने की आवश्यकता है, यह बात ग्रन्थकार ने स्वयं कही है
अष्टशती प्रथितार्था साष्टसहस्री कृतापि संक्षेपात्।
विलसदकलकधिषणैः प्रपञ्चनिचिताव द्रव्या।। अर्थात् श्री अकलङ्कदेव द्वारा रचित अष्टशती अपने प्रसिद्ध अर्थ सहित है, उस पर मैंने अष्टसहस्री नामक संक्षिप्त टीका की है। उत्तम बुद्धि के धारकों को उसे विस्तार से समझना चाहिए। सम्भवतः इसी प्रेरणा से उपाध्याय यशोविजय जी ने अष्टसहस्री तात्पर्य विवरण नामक व्याख्या लिखी।
देवागमवृत्ति आचार्य वसुनन्दि की देवागमस्तोत्र पर संक्षिप्त व्याख्या है। यह देवागमस्तोत्र की कारिकाओं को समझने में उपयोगी है।
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