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वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला
के अनुसार प्रमाण के उल्लिखित प्रत्यक्ष और परोक्ष इन दो भेदों का समर्थन ही नहीं किया, अपितु उनका विस्तार के साथ विशद प्रतिपादन भी किया है। इसके अतिरिक्त अन्य दार्शनिकों के मान्य प्रमाणों की संख्या की समालोचना भी की है। अष्टसहस्री का यह सयुक्तिकं एवं मौलिक प्रमाण निरूपण उत्तरवर्ती जैन दार्शनिकों के लिए मार्गदर्शक सिद्ध हुआ। आचार्य माणिक्यनन्दि ने अपना परीक्षामुख, आ. प्रभाचन्द्र ने उसकी व्याख्या प्रमेयकमलमार्तण्ड और आचार्य वादिराज ने प्रमाण-निर्णय अष्टसहस्री के आलोक में लिखे हैं।
___ अकलंकदेव के दिशा निर्देशानुसार इन्द्रिय व्यवसाय (मति) स्मृति, प्रत्यभिज्ञान तर्क और अनुमान को परोक्ष के अन्तर्गत सिद्ध करते हुए उनका सबलता के साथ युक्तिपूर्वक प्रमाण्य निर्णीत करना अष्टसहस्री की मौलिक विशेषता है। ध्यातव्य है कि इनके प्रामाण्य का प्रयोजक तत्त्व विद्यानन्द ने अविसंवादित्व को बतलाया है, जिसे बौद्ध दार्शनिक स्वयं स्वीकार करते हैं और यह "अविसंवादित्व" स्मृति आदि पाँचों ज्ञानों में पाया जाता है। अतः इन्हें प्रमाण माना ही जाना चाहिए और चूंकि इनका प्रतिभास अविशद होता है, अतः वे प्रत्यक्ष न होकर परोक्ष हैं। पर जो ज्ञान इन्द्रिय-मन निरपेक्ष तथा आत्मसापेक्ष होते हैं वे प्रत्यक्ष हैं। और वे हैं अवधि, मनः पर्यय और केवल। ___अष्टसहस्रीकार ने कारिका १०१ द्वारा मूलानुसार प्रमाण का लक्षण, प्रमाण की संख्या और प्रमाण का विषय इसमें विशदतया विवेचित किया है और कारिका १०२ के द्वारा प्रमाण का फल साक्षात् अज्ञान निवृत्ति और परम्परा उपेक्षा उपादान तथा हानज्ञान बतलाया है। इनमें अनुक्रम भावि (केवल) का साक्षात् फल तो अज्ञान नाश ही है और परम्परा फल मात्र उपेक्षा है पर क्रमभावि मति आदि ज्ञानों का साक्षात्फल अज्ञान निवृत्ति और परम्परा फल उपेक्षा उपादान और हानबुद्धि तीनों हैं। स्मरणीय है कि केवलज्ञानियों का सभी विषयों में प्रयोजन सिद्ध हो चुका है। अतएव उनके लिए न कोई ग्राह्य है और न कोई हेय है- मात्र सर्वत्र उपेक्षा (न राग और न द्वेष) है। यह भी उल्लेखनीय है कि अष्ट सहस्री में सर्वज्ञ में केवल दर्शन और केवलज्ञान दोनों का युगपद् सद्भाव समर्थित है क्रमभाव की समालोचना करते हुए कहा गया है कि केवल दर्शन और केवलज्ञान को क्रमशः मानने पर सदा सर्वज्ञता और सदा सर्वदर्शिता सिद्ध नहीं हो सकेगी जबकि दोनों के आचरण एक साथ क्षय को प्राप्त होते है। अतः दोनों का योगपद्य प्रमाण सिद्ध है।
इस तरह हम देखते हैं कि तार्किक शिरोमणि आचार्य विद्यानन्द की यह गौरवपूर्ण दार्शनिक एवं तार्किक कृति जैनवाङ्मय की सर्वोत्कृष्ट और अमर रचना है। अष्टसहस्री की हिन्दी व्याख्या स्याद्वाद-चिन्तामणि
विगत जैन साहित्य के इतिहास में हमें ऐसी कोई विदुषी महिला दृष्टिगोचर नहीं होती जिसने सिद्धान्त, दर्शन, तर्क, काव्य, व्याकरण आदि साहित्य के किसी अङ्ग या अङ्गों पर विद्वत्तापूर्ण मौलिक या व्याख्या रचना या रचनाएँ लिखी हों। हर्ष की बात है कि इस बीसवीं शती में इस क्षेत्र में अनेक विदुषी नारियां अग्रसर हुई हैं। इन्होंने सिद्धान्त और पुराणादि शास्त्रों का अध्ययन किया और उनमें अच्छा प्रवेश किया।
वन्दनीया गणिनी माता ज्ञानमतीजी ने अपनी विलक्षण प्रतिभा से धर्म, दर्शन, तर्क, व्याकरण, काव्य जैसे साहित्य क्षेत्र में साहस पूर्ण और विस्मयजनक कार्य किया है। समाज के क्षेत्र को भी उन्होंने अनछुआ नहीं रखा । जम्बूद्वीप की रचना उन्हीं के अद्भुत चिन्तन का प्रयास है। प्रकृत में उनके द्वारा किया गया उल्लिखित अष्टसहस्री का हिन्दी अनुवाद जिसे उन्होंने 'स्याद्वाद चिन्तामणि' व्याख्या नाम दिया है, समीक्ष्य है। यह तीन भागों में प्रकाशित है और वे तीनों भाग मेरे सामने हैं।
वस्तुतः 'अष्टसहस्री' जैसे दुरुह एवं जटिल तर्क ग्रन्थ का जिसमें अकलंकदेव की दुरवगाह कृति 'अष्टशती' भी समाविष्ट है, हिन्दी अनुवाद करना 'लोहे के चने चबाना है पर माताजी ने उसे कर दिखाया है। उन्होंने इसका अनुवाद ई. सन् १९६९ में जयपुर चातुर्मास में आरम्भ किया था और ई. सन् १९७० में टोंक (राजस्थान) के चातुर्मास में उसे पूरा कर लिया था। पर प्रकाशन का योग तत्काल नहीं मिला। चार वर्ष बाद १९७४ में उसका प्रथम भाग प्रकाशित हुआ और दूसरा (का० ७ से २३) तथा तीसरा (का० २४ से ११४) ये दोनों भाग ई० सन् १९८७ से १९९० में प्रकाशित हुए। यह माताजी की दीर्घ साधना का सुफल है।
हमें स्मरण है कि माताजी से इस बीच मिलने का हमें दो बार सौभाग्य मिला। एक बार लाला श्यामलाल जी ठेकेदार दिल्ली के साथ ई० १९७४ में दिल्ली में और दूसरी बार ला. प्रेमचन्द जी अहिंसा मंदिर नई दिल्ली के साथ सन् १९७८ में हस्तिनापुर में। दोनों बार देखा कि माताजी अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग में संलग्न हैं। उनकी इच्छा थी कि हम उनके इस हिन्दी अनुवाद को देख लें। पर माताजी चाहती थीं कि उनके सानिध्य में रहकर ही देखें। किन्तु मेरे लिए वाराणसी छोड़ना सम्भव नहीं था।
मुझे बहुत प्रमोद है कि माताजी ने साहस जुटाकर इस विशाल एवं जटिल ग्रन्थ का अपनी शक्ति, प्रतिभा और योग्यता से सरल हिन्दी अनुवाद प्रस्तुत किया। अनेक अध्येताओं को अष्टसहस्री के अध्ययन का मार्ग प्रशस्त किया और अब वे विभिन्न दर्शनों की चर्चाओं को इस हिन्दी अनुवाद के माध्यम से अवगत कर सकेंगे।
मुझे तो आश्चर्य है कि माता जी बह प्रवृत्तियों में व्यस्त होते हुए भी इस तर्क ग्रन्थ की सरल हिन्दी व्याख्या करने में सक्षम हो सकी है। मैं उन्हें बहुशः नमन करता हुआ उनकी चतुर्मुखी प्रतिभा को हृदय से सस्तुति करता हूँ। इति शम्।
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