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गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ
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यौवन
माँ यही सोचती रही “सरस" ममता का बड़ा-बड़ा घेरा3; इतने में बालापन भागा, यौवन ने आ डाला डेरा ।। जब देखा मैंना के तन पर, तनकर तरुणाई छाई है; माँ-पिता सभी को परिणय की, तत्क्षण चिंता हो आई है ॥ ३४ ॥ अब लगी सोचने यह माता, प्रभु शीघ्र योग्य वर मिल जाये; जिससे आँखों की पुतली का, यह जीवन सुखमय हो जाये। उस ओर सोचती थी मैंना, प्रभु कब ऐसा वह दिन आये; जिस दिन मैना गृह पिंजड़े से वैरागिन बनकर उड़ जाये ॥ ३५ ॥ संयोग दूसरे दिन ऐसी थी, घड़ी-घड़ी वह ले आई ; पक्का मैना का वाग्दान, हो गया दूसरे दिन भाई । फिर लगे हाथ सप्ताह बाद, शादी का दिवस निकल आया; तब मैंना ने बेबस होकर, सखियों से निश्चय दुहराया ॥ ३६ ॥ मैना की भीष्म प्रतिज्ञा यह, वह शादी नहीं करायेगी ; आ गई बरात यदि लेने, वह खाली हाथों जायेगी । दम भले निकल जाये लेकिन, दामन पर दाग न लाऊँगी; हो भले नाक दम, तो भी मैं, अब कदम न कभी हटाऊँगी ॥ ३७|| तब एक सखी ने कहा तभी, इस तरह न मैंना मुरझाओ; यौवन की बगिया खिलने दो, आई बहार मत लौटाओ। तप-त्याग-तपस्या की चर्चा, तो बूढ़ेपन की बातें हैं; दिन अभी तुम्हारे सोने के, चाँदी की समझो रातें हैं ॥ ३८ ॥ प्रत्युत्तर में मैंना बोली, बस यही भाव तो खोटा है; जागरण हमेशा सुख देता, सोने में हर दम टोटा है । सुन लो, मैं होकर स्वाधीन, कर्मों की डाली का गी; विष भी यदि मिला जमाने से, बदले में अमृत बाँ-गी ॥ ३९ ॥ मैं वैरागिन बन जाऊँगी, मुनिवर की शीतल छाया में; अब अपना आत्म-विकास करूँ, क्या रखा माया-काया में? यह विषय-वासना का विषधर, भव-भव से डसता आया है। परिधान बदलते हार चुकी, पर पार न अब तक पाया है ॥ ४० ॥ इतने में माता आ पहुँची, बोली, क्या गड़बड़ झाला है; तब आद्योपांत सुना डाला, सखि ने अब तक का आला है । यह सुनकर माता घबराई, बोली किस डर से डरती हो? मेरे सपनों, अरमानों की, क्यों निर्मम हत्या करती हो ? || ४१ ॥ अब जो कारण हो साफ कहो, क्यों माता से शर्माती हो? क्या योग्य नहीं है ? लड़का जो, इतनी उदास दिखलाती हो। मैना ने सुनी न पूर्ण बात, बोली विनम्र हो भारी है ; बस यहीं मूल में भूल मात, यह निष्फल बात विचारी है ॥ ४२ ॥ करना सपना साकार तुम्हें, तो जग को ऐसी वायु दो; करके मम जीवन दान, सत्य-संयम को कुछ दिन आयु दो। इसलिए हमारे जीवन पर, जहरीला कफन उड़ाओ मत ;
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