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वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला
नारी-गौरव के साथ-साथ, ये त्याग जगत की गरिमा है ॥ १२१ ॥ श्री ज्ञानमती का साहस लख, मुझसे मेरा मन कहता है; स्त्री होकर, पुरुषों से बढ़, कितनी इनमें तत्परता है? गर-अगर पुरुष पर्याय में, श्री ज्ञानमती माता होती ; जाने अब तक क्या कर देतीं, संयम के दिव्य लुटा मोती ।। १२२ ॥ जिस समय देशभूषण की यह, ज्यों ही पावन वाणी गूंजी । धरती हो गई स्वयं प्रमुदित, जनता मयूर बनकर झूमी । युग संत देशभूषण जी ने, अपना आशीष समर्पित कर; सम्मान बढ़ाया "न्याय प्रभाकर" का पद गद-गद अर्पित कर ॥ १२३ ।। तब परम "आर्यिकारत्न" साथ, ये-दो उपाधियाँ दे डालीं; अवलोक "सरस" हर त्यागी के, आनन पर आ बैठी लाली । इस तरह पृज्य माता जी को, संतों ने स्वयं सराहा है; तब उन भक्तों का क्या कहना, जिनने मन चाहा, चाहा है ॥ १२४ ।।
कवि निवेदन
ऐसे कितने ही शुभ अवसर, करते रहते शुभ वंदन हैं; श्रद्धा की भाषा में इनका, जीवन ही पाप निकंदन है। देवों के द्वारा वंदनीय, जिनका ऐसा आकर्षण है; मेरी छोटी-सी कलम भला, क्या करे आपका वर्णन है ।। १२५ ॥ यह सत्य-अहिंसा की मूरत, युग-युग तक ज्ञान प्रकाश करे; जिस जगह आप डालें डेरा, शिवपुर-सा वहाँ निवास करे । है अभिलाषा सबके मन की, यह "प्रभा" सरस दिन दूनी हो; भारत माता की गोदी, इस माता से कभी न सूनी हो ॥ १२६ ।। स्मरण रहे यह भक्ति-काव्य, बन करके लिखा पुजारी है; कवि की कविता की प्रतिभा की. अब जरा न जिम्मेदारी है। फिर भी पद-अक्षर मात्रा से, यदि किंचित भी हो वेदन है; कर क्षमा ! सुधार पढ़ो पाठक, विज्ञों से विनय निवेदन है ॥ १२७ ।। आशा है “सरस" निवेदन यह, अब प्यार आपका पायेगा; यदि मिला आपका शुभाशीष, कवि आगे कलम चलायेगा। हैं वही बड़े जो छोटे की, त्रुटियों पर ध्यान न देते हैं : है सबको जय जिनेन्द्र मंग, लो अब विराम हम लेते हैं ।। १२८ ॥
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