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वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला
जीवन से महान् समाधि :
जीवन भर रत्न की अलौकिक आभासी चमक वाली प्रतिभा लौकिक दृष्टि से क्षीण हो रही थी, परन्तु महाप्रयाण के लिए प्रज्वलित, ज्योति का प्रकाश और भी अधिक दमकने लगा था। जिन्दगी को जिन महोत्सव के साथ जीना सीखा था उसी मनोत्सव को समाधि मरण द्वारा मृत्यु महोत्सव में बदल दिया था। उन्होंने अपने जीवन में आर्यिकाश्री ज्ञानमतीजी द्वारा विधिवत् कराये गये कई समाधिमरणों को देखा था। भावना तो उनकी उस समय भी होती थी कि उन्हें भी ऐसी सल्लेखना का शुभ अवसर मिले वैसे भी चारित्र चक्रवर्ती आचार्य श्री शांतिसागरजी का पंडितमरण इस युग की सबसे बड़ी तपाराधना थी और आचार्य वीरसागर आदि का भी ऐसा महान् निर्वाण हो चुका था उसी महान् उज्ज्वल परंपरा की एक कड़ी ये भी बनीं। तेरह वर्ष के दीक्षित जीवन में यद्यपि वे क्रमशः शरीर के प्रति निमोंही बनकर अनंत की यात्रा की ओर बढ़ ही रही थीं लेकिन १३ नवंबर १९८४ से १५ जनवरी १९८५ तक वे क्रमशः वीतरागता की ओर कदम बढ़ा रही थीं और १५ जनवरी को पंचपरमेष्ठी का ध्यान करते हुए दिन में एक बजकर पैंतालीस मिनट पर उनकी आत्मा इस नश्वर शरीर को छोड़कर अमरलोक स्थापित हुई।
कैसा गृहस्थ जीवन का माँ-बेटी का संबंध । बेटी गुरु और माँ शिष्या ! बेटी अपनी माँ को सल्लेखना कराती है। दोनों वैराग्य के रंग से रंगी हुई। त्याग, निमोहिता का इससे महान् उदाहरण और क्या हो सकता है ? बेटी माँ को निरंतर इतना ही सावधान करती रहती है___ माता जी सावधान रहना आत्मा भिन्न है, शरीर भिन्न है, शरीर पुद्गल है, जीर्ण-शीर्ण होता है, छूटता है। शरीर की मृत्यु है आत्मा की नहीं, आत्मा भगवान है, शुद्ध है, सिद्ध है, अनंतज्ञान दर्शन सुख वीर स्वरूप है, ध्यानानंद स्वरूप है।" कहीं पर भी माँ-बेटी का संबंध वैराग्य पर हावी नहीं हो पाता है, क्योंकि दोनों के राग-भाव छूट गये हैं। इससे बड़े वैराग्य की वीरता का ज्वलंत उदाहरण और क्या हो सकता है। जब ज्ञानमती माताजी ने मौ रत्नमतीजी को क्षपक बनाकर स्वयं निर्यापिकाचार्य का कर्तव्य निर्वाह किया। पूज्य माताजी सल्लेखना व्रत ले चुकी हैं और प्राप्त होता है आचार्य श्री धर्मसागरजी का शुभाशीर्वाद, जो उनकी आत्मा की दृढ़ता के लिए संबल बन जाता है- "माताजी आपने अजमेर में अपने पुत्र-पुत्रियाँ, घर और कुटुंब से मोह छोड़कर शरीर से भी होकर बड़े ही पुरुषार्थ से आर्यिका दीक्षा ली थी, आपने इतने दिनों से संयम रूपी मंदिर तैयार किया हुआ है अब आपको इसके ऊपर संयम रूपी मंदिर तैयार करना है, अब इसके ऊपर सल्लेखना रूपी कलशारोहण करना है। अतः पूर्णतः तैयार रहना। अपने जीवन का साथ जो संयम है उसे आपको अंत तक अपने साथ ले जाना है वही मेरा आशीर्वाद है।" और सचमुच माताजी ने पूर्ण समानता की अवस्था में तपस्या के मंदिर पर सल्लेखना का कलश चढ़ा दिया।
१४ जनवरी को सूर्य संक्रांति कर चुका था। दक्षिणायन की यात्रा पर चल पड़ा था। पर १५ जनवरी की संक्रांति तो क्षर से अक्षर की ओर थी। अंतिम दिन भी सभी आवश्यक क्रियायें की। भगवान शांतिनाथ का प्रातः प्रक्षाल देखा। गंधोदक लगाया। शुद्धि की, पर अब आहार की इच्छा नहीं थी। वह क्षण याद आ रहे थे। जब ज्योति ज्योति में लीन होती थी। णमोकार के मंत्र ध्वनित हो रहे थे। सावधानी बनी थी कि कहीं अंतिम क्षण विभाव परिणाम अपना आक्रमण न कर दें, पर सत्य, श्रद्धा, भक्ति और दृढ़ता के चारों दिशा में लगे पहरेदारों के सामने किसी की न चली। महान् आत्मा अनंत की यात्रा को निकल पड़ी। देह निकल गयी पर रत्नमयी चारित्र की जगमगाहट और दैदीप्यमान हो उठी।
रत्नमती माताजी देह से न रहीं, पर आज भी उनकी आभा का आलोक मानो कण-कण में जगमगा रहा है।
गणिनी आर्यिकाश्री के गृहस्थावस्था के पिताजी महान् आत्माओं के जनक - लाला छोटेलालजी जैन
- डॉ. कस्तूरचंद कासलीवाल, जयपुर "नाम बड़े अरु दर्शन छोटे" वाली कहावत को गलत सिद्ध करने वाले लाला छोटेलालजी जैन नाम से छोटे अवश्य थे, लेकिन महान् जीवन जीने वाले थे। उनका जीवन प्रारंभ से ही धार्मिक रहा। प्रतिदिन देवदर्शन करना, रात्रि भोजन त्याग का नियम पालन करना, स्वाध्याय एवं शास्त्र श्रवण उनकी दैनिक चर्या थी। भाग्य से उनको पत्नी भी धार्मिक विचारों की मिली, जो अपने साथ दहेज में पद्मनन्दि पंचविंशतिका जैसा ग्रंथ लाई थी। कपड़े की दुकान थी। अच्छी आमदनी थी, इसलिए उनका जीवन शांति से व्यतीत होता था।
इसके पश्चात् परिवार में सदस्यों की संख्या बढ़ने लगी। एक-एक करके नौ पुत्रियां एवं चार पुत्रों के जनक कहलाने लगे। जब भी पुत्री का घर में जन्म होता, बराबर के साथी फब्तियां कसते, लो एक लाख का हुण्डा फिर आ गया, लेकिन लालाजी लोगों की बातों को सुनकर हँस देते थे। लड़कियों को लक्ष्मी का अवतार मानकर अपने जीवन को धन्य समझते थे। वर्तमान में तो दो-तीन लड़कियां होते ही व्यक्ति आसमान
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