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गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ
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यद्यपि इसकी टाइप बदल दी है फिर भी हिंदी अनुवाद में कोष्ठक में ऐसा दिया है-यथा- (यह मंगलाचरण हिंदी टीकाकर्वी द्वारा किया गया है) यह माताजी की अत्यर्थरूप से पापभीरुता का ही सूचक है। अष्टशती भाष्य :
श्रीअकलंकदेव ने "आप्तमीमांसा" ग्रंथ पर अष्टशती नाम से जो भाष्य लिखा है। श्रीविद्यानन्दसूरि ने उसे अपनी अष्टसहस्री में ऐसा गूंथ लिया है या अनुस्यूत कर लिया है कि जैसे बेला के पुष्पों की माला में चमेली के पुष्प एकमेव हो जाते हैं अतः उन्हें अलग से समझना अत्यंत कठिन हो सकता था । इसीलिये मूल अष्टसहस्री में "अष्टशती" की टाइप मोटी रखी गई है और हिंदी अनुवाद में भी अष्टशती के अर्थ की टाइप ब्लैक रखी गई है। उद्धृत श्लोक
इस अष्टसहस्री ग्रंथ में श्री विद्यानन्द आचार्य ने जितने भी श्लोक उद्धृत किये हैं यद्यपि मूल ग्रंथ में उनकी टाइप अलग दी है ५ नं० ब्लेक में उन्हें अलग से दिया है फिर भी उन सभी का संकलन परिशिष्ट में कर दिया है। तृतीय भाग में अंत में “आप्तमीमांसा" की सभी ११४ कारिकायें एक साथ दे दी हैं। जिससे एक साथ "स्तोत्र" का पाठ करने वालों को सुविधा रहेगी। नियोग विधि भावनाधिकार
बंबई परीक्षालय के शास्त्री कोर्स में अष्टसहस्री के विषय में लिखा था "नियोग विधिभावनाधिकार वर्जित ।" इसलिये माताजी ने अष्टसहस्री का अनुवाद करते हुये तृतीय कारिका के मध्य का यह सारा प्रकरण छोड़ दिया था। जब अनुवाद कार्य पूरा होने को था तभी माताजी ने ब्र० मोतीचंद से, पं० माणिकचन्दजी न्यायाचार्य, फिरोजाबाद वालों के पास पत्र लिखाया कि आप यह नियोगादि के प्रकरण का हिंदी अनुवाद कर दीजिये। उनका उत्तर आया। माताजी ! मैंने जब तत्त्वार्थ श्लोकवार्तिक का हिंदी अनुवाद किया था तब पाव-पाव बादाम खाकर पचा लेता था अब वह शक्ति नहीं है, अतः मैं इस कार्य में असमर्थ हूं। तब माताजी ने पं० जीवंधर कुमारजी उज्जैन वालों को पत्र लिखाया। उनका भी उत्तर आया कि मुझे अष्टसहस्री का अध्ययन छोड़े तीस वर्ष के ऊपर हो गये हैं अतः मैं इस कार्य में असक्षम हूँ। तब माताजी स्वयं इस प्रकरण को लेकर जिनमंदिर में जाकर बैठ गईं और जिनेंद्रदेव को अपने हृदय में विराजमान कर लिखना शुरू कर दिया। आश्चर्य है कि जिस प्रकरण को माताजी ने अतीव दुरूह समझकर छोड़ दिया था वह बिल्कुल सरल प्रतीत हुआ और सात दिन में ही इसका अनुवाद पूर्ण हो गया।
यह प्रकरण अष्टसहस्री भाग-१ ग्रंथ में पृ० २५ से लेकर पृ० १७१ तक है। इसमें अनेक भावार्थ, विशेषार्थ और सारांश भी दिये गये हैं। पाठकों को इसे पढ़कर स्वयं ही अनुभव आयेगा कि यह अत्यन्त जटिल प्रकरण भी कितना अच्छा, सरल और सुंदर बन गया है। अष्टसहस्री में खंडन-मंडन :
इस ग्रंथ में चार्वाक, सांख्य, बौद्ध, मीमांसक, नैयायिक और वैशेषिक इन सबकी एकांत मान्यताओं का खंडन करके सर्वत्र अनेकांतरूप जैनधर्म का मंडन किया गया है। जैसे कि कोई एकांत से दैव-भाग्य को ही सब कुछ कहते हैं तो कोई पुरुषार्थ को ही सब कुछ कहते हैं, किंतु आचार्यदेव ने दोनों के एकांत का खंडन करके बहुत ही सुंदर समन्वय किया है। यथा
अबुद्धिपूर्वापेक्षाया-मिष्टानिष्टं स्वदैवतः ।
बुद्धिपूर्वव्यपेक्षाया -मिष्टान्टिं स्वपौरुषात् ॥ अबुद्धिपूर्वक- बिना सोचे-समझे जो अच्छे या बुरे कार्य हो जाते हैं उनमें अपना भाग्य प्रधान है और जब बुद्धिपूर्वक की अपेक्षा होने से इष्ट या अनिष्ट कार्य होते हैं तब पुरुषार्थ प्रधान माना जाता है। इत्यादि।
सन् १९७३ में इस ग्रन्थ के ८-१० छपे फर्मे देखकर पं० कैलाशचंद सिद्धांत शास्त्री ने बहुत ही प्रसन्न होकर कहा था कि "अनेकों विद्वान् मिलकर इतना सुंदर अनुवाद कार्य नहीं कर सकते थे कि जैसा माताजी ! आपने किया है . . . . ।"
___ आचार्य श्री विमलसागरजी महाराज, पं० कैलाशचंद सिद्धांत शास्त्री, डॉ० पन्नालाल जी साहित्याचार्य आदि ने इसके प्रकाशन के लिये बहुत बार प्रेरणायें दी हैं। आज यह संपूर्ण ग्रंथ प्रकाशित होकर जन-जन में स्याद्वादमय अनेकांत धर्म का उद्योत कर रहा है। इसके विषयों को जितना भी अधिक प्रकाशित किया जाये वह थोड़ा ही है। इस ग्रंथ के पठन-पाठन से सभी भव्यात्मा अपने सम्यक्त्व को निर्मल बनावें यही मंगलकामना है।
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