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गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ
सन् १९७१ में अजमेर में मोहिनीजी ने ज्ञानमती माताजी की शिष्या आ० पदमावती माताजी की विधिवत् समाधि देखी थी । उससे उनके वैराग्य भाव अधिक पुष्ट हुए। बस यह मोहिनी जी का गृह त्याग ही था। एक दिन मौका देखकर वे आ० ज्ञानमतीजी से बोलीं- "माताजी मेरी इच्छा घर जाने की नहीं है। अब मेरा मन पूर्ण विरक्त हो चुका है। मैं दीक्षा लेकर आत्मकल्याण करना चाहती हूँ।" आर्यिका ज्ञानमतीजी ने इस भावना का पूर्ण अनुमोदन किया और प्रोत्साहित भी किया।
कुटुंबी जनों ने स्वास्थ्य के संदर्भ में दीक्षा न लेने का आग्रह किया, पर अब मोहिनी के पास मोह ही कहाँ रहा था? शरीर, घर या परिवार के प्रति उनका मोह तो मोक्ष की ओर मुड़ चुका था। आचार्य श्री के समक्ष नारियल चढ़ाकर आर्यिका दीक्षा की प्रार्थना की। आचार्यश्री ने जिन दीक्षा खांडे की धार पर चलना बतला कर पुनः विचार करने की सलाह दी। पर कमजोर शरीर में स्थित दृढ़ आत्मा की गूंज थी। वे बोलीं
अब तो मैंने निश्चय ही कर लिया है। आखिर माँ को सीधे समझाया कुछ उपद्रव भी
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"महाराज जी संसार में जितने कष्ट सहन करने पड़ते हैं। उनके आगे दीक्षा में क्या कष्ट है। टिकैतनगर समाचार भेजे गये। पूरा परिवार अजमेर आ गया। सभी माँ मोहिनी से चिपट कर रोने लगे किया, पर मोह से निर्मोह की सीढ़ी पर आरूढ़ मोहिनी को डिगा न सके उपसर्ग था सो टल गया। भव्य दृश्य था। पांडाल में पैर रखने की जगह नहीं थीं, दीक्षा विधि चल रही थी मोहिनीदेवी का केशलोंच हो रहा था। बाल छोटे थे अतः आर्यिका ज्ञानमतीजी चुटकी से केशलोंच कर रही थीं। सिर लाल हो रहा था। उपस्थित जन समूह के नयनों से अश्रुसरिता बह रही थी, पर मोहिनी देवी के चेहरे पर तो विवाद या कट की एक लकीर भी नहीं थी। देखते ही देखते रनों की जननी अब हो गयी आर्थिक रत्नमती कैसा संयोग दो पुत्रियाँ आर्यिका और अब माँ भी उसी पथ पर ।
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वैराग्य का संबल लेकर मुक्तिपथ पर आरूढ़ आ० रत्नमती इस उम्र में भी दृढ़ मनोबल के साथ पैदल विहार करती थीं। वे अजमेर से ब्यावर पैदल आयीं, पहला अनुभव था, रास्ते के शूल भी भक्त के लिए फूल बन रहे थे।
वैराग्य के साथ ज्ञानार्जन का प्रारंभ मनोयोग से किया। अन्य आर्थिकाओं के साथ संस्कृत प्राकृत की गाथायें पाठ शुद्ध रूप से उच्चारण कर कंठस्थ करने लगीं । विधिवत् सामायिक प्रतिक्रमण करतीं। संस्कृत कहने में गति कम होने से उनकी प्रार्थना पर आ० ज्ञानमतीजी ने सामायिक की भक्तियों का हिन्दी पद्यानुवाद किया, जो अधिकांश श्रावकों के लिए भी वरदान सिद्ध हुआ । आ० रत्नमतीजी का अधिकांश समय स्वाध्याय एवं प्रवचन श्रवण में ही व्यतीत होता था ।
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जब अपने छोटे पुत्र रवीन्द्र को आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत स्वीकार करते देखा तब आशीर्वाद देते हुए कहा था- "तुम अपने जीवन में धर्मरूपी धन का खूब संग्रह करो तथा त्याग में बढ़ते हुए एक दिन अपने लक्ष्य को प्राप्त करो।"
सच्चे जिनधर्म की आराधिका रत्नमती माताजी ने अनेक स्थानों पर महिलाओं को संतोषी माता व्रत और अन्य मिथ्यात्व व्रतों को छुड़ाकर मिथ्यात्व का त्याग कराया और जैन धर्म में लगाया। युवा और बालकों को मद्य, मांस, मधु का त्याग कराया। इस प्रकार सामाजिक उत्थान के कार्य भी किये।
हस्तिनापुर में सन् १९८० में विद्वानों का एक सफल सेमिनार सम्पन्न हो रहा था। उस समय विद्वानों ने रत्नमती माताजी की धर्मप्रभावना से और साधना से प्रभावित होकर उनका एक अभिनंदन ग्रंथ प्रकाशित करने की योजना बनायी, जब रत्नमती माताजी ने यह सुना तब उन्होंने कहा "मेरा अभिनन्दन ग्रन्थ बिल्कुल नहीं निकलना चाहिए, जो भी अभिनन्दन करना हो आप लोग आर्यिका ज्ञानमती माताजी का ही करें।" यह उनकी आन्तरिक निस्पृह भावना ही थी।
इधर महीनों से रत्नमती माताजी का स्वास्थ्य बहुत कमजोर हो चुका था वे स्वयं ही कहती थीं कि दिल्ली का हो-हल्ला उन्हें परेशान करता है। माताजी ज्ञानमतीजी भी उन्हें अस्वस्थ छोड़कर जा नहीं सकती थीं क्योंकि दो महीने पूर्व ही उन्हें अकस्मात् चकर आ गये थे, उन्हें अंतिम णमोकार तक सुना दिये गये थे। कब शरीर छूट जाए यह दुविधा थी, इसी ऊहापोह में एक माह गुजर गया, उधर दिल्ली के लोग ज्ञानज्योति प्रवर्तन के लिए उसकी प्रभावना बढ़ाने के लिए ज्ञानमती माताजी का सानिध्य चाहते थे। बड़ी दुविधा की स्थिति थी। जब रत्नमती माताजी को यह विदित हुआ तब उन्होंने दृढ़ निश्चय किया और सोचा, "यदि मैं इस समय दिल्ली नहीं जाती हूँ तो ये भी नहीं जा रही है, इतने महान धर्मप्रभावना के कार्य में व्यवधान पड़ रहा है, अतः यद्यपि मुझे बिहार में कष्ट है, फिर भी जैसे हो वैसे सहन करना चाहिए। मैं इनके द्वारा होने वाली धर्म की इतनी बड़ी प्रभावना में बाधक क्यों बनूँ ।"
इस दृढ़ निश्चय ने बूढ़ी हड्डियों में चेतना भर दी । कष्ट स्वयं मंगल बन गया और वे दिल्ली पहुँची ।
सांसारिक दृष्टि से यद्यपि वे ज्ञानमती माताजी की माता थीं, पर धर्म की दृष्टि से उनकी शिष्या इसलिए वे सदैव उन्हें माताजी ही कहती थीं। नाम नहीं लेती थीं। उन्हें ससम्मान वंदन करतीं, उनके पास ही प्रतिक्रमण करतीं और प्रायश्चित भी करती थीं। यह सत्य है कि शरीर के वृक्ष पर में दृढ़ रत्नमती माताजी का जीवन स्वयं तो रत्नों-सा दैदीप्यमान रहा, पर उससे भी अधिक ज्योति निखरी उनकी रत्नों-सी आभा वाली संतानों से ।
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