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वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला
गणिनी आर्यिका श्री की जन्मदात्री आर्यिका श्री रत्नमती माताजी अतीत के आइने में
- श्रीमती ज्योति जैन, श्रीमती प्रीति जैन - अहमदाबाद
लाला धन्यकुमार अपने पुत्र छोटेलाल का विवाह करके लौटे। पूरे मुहल्ले के पुरुष महिला नव वर-वधू को देखने उमड़ पड़े। सबकी जुबान पर चर्चा थी, एक विचित्र दहेज जो समधी साहब सुखपालजी ने अपनी पुत्री मोहिनी को दहेज में एक ग्रन्थ दिया था। "पद्मनंदि-पंचविंशतिका"। लाला धन्यकुमारजी प्रसन्न थे कि रूप में मोहिनी और गुणों में धर्मनिष्ठ पुत्र वधू पा सके हैं। बहू तो मानो संस्कारों की थाती लेकर आयी थी।
मोहिनी देवी स्वभाव से नये घर में ऐसे घुल मिल गई जैसे दूध में शक्कर । उनकी मिठास भी घर भर को गुदगुदाने लगी। जीवन का प्रथम पुष्प १९३४ में मैना के रूप में खिला जिनकी सुगन्ध आज जन-जन को प्रफुल्लित कर रही है।
जिनके रक्त में संस्कार प्रवाहित थे। भावनाओं में धर्म के प्रति श्रद्धा थी और कर्त्तव्य में आराधना की प्रबलता थी ऐसी मोहिनी देवी ने अपने पति के साथ अनेक तीर्थों की वंदना की और अनेक जैन व्रतों की पूर्ण विधि से आराधना भी की। उन्हें लगता था कि नश्वर शरीर का उत्तम उपयोग ही आत्मकल्याण के मार्ग पर प्रशस्त होना है। अतः अधिकाधिक व्रत धारण करती थीं। ये संस्कार उनके दूध में उतरे और सभी संतानों में संक्रमित हुए। जैन धर्म का घर में इतनी दृढ़ता से पालन किया जाता था कि माता मोहिनी ने बड़ी पुत्री मैना के कहने पर घर में उन सभी व्यवहारों को बन्द कर दिया जो मिथ्यात्व से प्रेरित थे। मोहिनी बच्चों को दूध पिलाते समय भी भक्तामर का पाठ किया करती थी। जो संस्कार रूपी अमृत बनकर बच्चों में फूला और फला। आपकी सबसे बड़ी पुत्री मैना जो वर्तमान में गणिनी आर्यिका श्री ज्ञानमती के नाम से प्रसिद्ध हैं उनके यशस्वी जीवन से सारा देश सुपरिचित है।
सन् १९५३ में आचार्य देशभूषणजी का वर्षायोग टिकैतनगर में हुआ। क्षुल्लिका वीरमती संघ में थीं। मोहिनी माँ प्रतिदिन चौका लगातीं, आहार देतीं। उस दिन उनके दुःख का पारावार न रहा जब क्षुल्लिका वीरमती किसी अन्तराय के कारण उनके आँगन से आहार लिए बिना ही ललाट गयीं। एक दिन क्षुल्लिका वीरमती की आँखों में तकलीफ थी, वैद्य ने बकरी के दूध में भिगोकर फोहे रखने की सलाह दी थी। जब मोहिनी माँ ने यह सुना तो बेटी के प्रति ममता उमड़ पड़ी। वे रात्रि को बकरी के दूध की जगह अपने दूध का फोया रख जाती थीं क्योंकि गोद में एक वर्ष की बेटी मालती थी। वे जब अपनी बेटी क्षुल्लिका वीरमती के दृढ़ चरित्र, उत्कृष्ट ज्ञान की प्रशंसा सुनतीं तो उनका मन विभोर हो जाता और उनके उज्ज्वल भविष्य की कामना करतीं।
पुनः एक छोटी बेटी मनोवती भी पांच वर्ष से दीक्षा के लिए तड़फ रही थी, उसका मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य बिगड़ रहा था। तब मोहिनी माँ को लगा कि इसे माताजी के पास पहुँचा ही देना चाहिए। डर था कि कहीं पति रोक न लें, अतः पहली बार साहस बटोर कर पुत्री मनोवती और पुत्र रवीन्द्र को लेकर मार्ग का पता पूछते-पूछते लाडनूं पहुंची, जहाँ आर्यिका ज्ञानमती जी विराजमान थीं। वैराग्य पथ के पथिक में साहस और निर्भीकता होनी चाहिए जिसका उदय मोहिनी माँ के हृदय में हो चुका था। मनोवती ने जब वैराग्य धारण करने की भावना व्यक्त की तब भी सभी ने मोहिनी माता की कूख को सराहा था।
मोहिनी माँ के जीवन का मोड़ उस दिन आया जब माता ज्ञानमतीजी के केशलोंच को देखकर उनके हृदय में वैराग्य का स्रोत उमड़ पड़ा। केशलोंच के बाद वे श्रीफल लेकर आचार्य श्री के पास गयीं और दो प्रतिमा के व्रत देने की प्रार्थना करने लगी उस समय आर्यिका ज्ञानमतीजी ने समझाया था कि तुम्हें शुद्ध घी वगैरह नहीं मिला तो तुम्हारा स्वास्थ्य और भी कमजोर हो जायेगा। कुएं का पानी भी उपलब्ध करना कठिन होगा, लेकिन वैराग्य की दृढ़ता के सामने भौतिक असुविधाओं का असंभाव्य टिक न सका। वे १२ व्रतों का दृढ़ता से पालन करने लगीं। नियमित स्वाध्याय और पूजन करतीं।
वे तो निरन्तर यही सोचतीं "भगवन् कब ऐसा दिन आयेगा जब मैं केशलोंच करके घर-कुटुम्ब, पति, पुत्र, पुत्रियों का मोह छोड़कर दीक्षा लेकर संघ में रहूँगी।
सन् १९६९ में टिकैतनगर में मोतीचंद जीका पत्र मिला कि महावीरजी में प्रतिष्ठा के समय क्षुल्लिका अभयमती को आर्यिका दीक्षा प्रदान की जायगी अच्छा हो कि आप दोनों उनकी दीक्षा के माता-पिता बनने के लाभ से वंचित न रहें। पत्र को पाकर परिवार के जन वहाँ पहुँचे और इस शुभ अवसर का लाभ भी लिया। मालती माधुरी सभी एक-एक करके वैराग्य के पथ पर आरूढ़ हो रहे थे। छोटेलालजी का स्वर्गवास हो चुका था और मोहिनी माँ का मन भी संसार से उठने लगा था। इसे देखकर आचार्य सुबलसागरजी ने कहा था " इन माता मोहिनी की कोख से जन्म लिये सभी सन्तानों को बुद्धि का क्षयोपशम विरासत में मिला है।"
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