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गणिनी आर्यिकाल श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ
सोनाबाई जो गृहस्थ बनी, गाफिल हो करके सोती थीं; मृगतृष्णा-सी माया में पड़, जीवन की घड़ियाँ खोती थीं। वह पद्मावती आर्यिका बन, मुक्ति का मार्ग दिखाती है; भवसागर से बहते जग को, क्षण-क्षण में पार लगाती हैं ॥ ७३ ॥ प्रिय प्रभावती जिनमती बनीं, यह कैसा किया उजाला है?
अंगूरी को श्री आदिमती, बोलो, किसने कर डाला है? श्री श्रेष्ठमती की फैल रही, हर डगर-डगर पर गरिमा है; श्री मनोवती हैं अभयमती, बोलो यह किसकी महिमा है ? ॥ ७४ ॥ श्रेयाँसमती हैं रतनबाई, यह कैसा ? मिला उन्हें बल है; जय जय जयमती बोलता जग, यह किसकी कृपा का फल है? ये सभी आर्थिकाये प्रियवर निज में कर्तव्यपरायण है; यदि सबके नाम गिनायें तो, बन जायेगी रामायण है ॥ ७५ ॥ अब समय न ज्यादा लेकर मैं, आगे की कलम चलाता हूँ; बस, इसी श्रृंखला में तुमको, कुछ और नाम बतलाता हूँ । यश-यशोमती माता जी का सारे भूतल पर छाया है। श्री संयममती आर्यिका ने संयम से यह पद पाया है ॥ ७६ ॥ किसने इनको ऐसे पथ पर चलने की राह दिखाई है; आचार्य देशभूषण द्वारा, दिल्ली दीक्षा दिलवाई है ।
फिर अपने साथ ७४ तक, रक्खा दी अपनी छाया है;
है ज्ञानमती की देन, ज्ञान जिनका हरवख्त जगाया है ॥ ७७ ॥
जो कल तक रहीं सुशीला जी, श्रुतमती आज कहलाती है; कलकत्ता इनकी जन्म भूमि सारा जग आज जगाती हैं। अब श्रवणबेल जन्मी शीला का, तेज जहाँ में छाता है;
युग जिन्हें शिवमती माता कह, श्रद्धा के सुमन चढ़ाता है ॥ ७८ ॥ था आठ दिसम्बर सरस चौहत्तर, का जब पावन दिन आया; आचार्य धर्मसागर द्वारा, दोनों को दीक्षा दिलवाया ; दिल्ली का दरियागंज कहे, पायी थी जिसने वह बेला था सरस दीक्षा अवसर पर लोगों का वहाँ बड़ा मेला ॥ ७९ ॥ यह किसकी कृपा का प्रताप ? जिसको सुन मन हर्षाता है; कल का बालक यशवंत आज, मुनि वर्धमान बन जाता है।
हो गये उदयपुर के सुरेश, दुनिया में दिव्य उजागर हैं; कर दिया असम्भव को सम्भव, बन करके सम्भवसागर हैं ॥ ८० ॥
ऐसे कितने ही भक्तों ने यह मुनि परम पद पाया है क्षुल्लक ऐलक की चर्चा तो सचमुच में अभी बकाया है।
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श्री ज्ञानमती माताजी की, जो भी कृपा पा जाते हैं; वे इसी तरह से इस युग में, अपना आलोक दिखाते हैं ॥ ८१ ॥ श्री मोतीचंद सनावद से, वैराग्य क्षेत्र में आये हैं बन गये "सरस" साहित्यकार, सुन्दर लेखक कहलाये हैं। क्या कहें ? "सरस" माता जी ने खुद अपने घर को मोड़ा है। भाई रवीन्द्र और बहिन चार को, इस विराग से जोड़ा है ॥ ८२ ॥
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