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गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ
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जन्म
यू०पी० में लखनऊ के समीप, बाराबंकी इक जनपद है; है ग्राम टिकैतनगर, उसको लख दर्शक होता गदगद है। स्मरण रहे यह वह नगरी, जिसका इतिहास निराला है; टिक सकता नहीं, टिकैतनगर, कोई भी छल-बल वाला है ॥ १५ ॥ जिसको शक हो वह अजमा ले, यह बात न कोई जाली है; तलवार यहाँ के वीरों की, जाती न कभी भी खाली है। पर इसका अर्थ नहीं, यह भी, नर ही इसका बलशाली है; समझें न आप हैं वही वीर, बालाओं से भू खाली है ॥ १६ ॥ नारियाँ नरों से भी बढ़कर, इस भू की हमें दिखाती हैं; नर तो बनते हैं "वीर", नारियाँ, महावीर बन जाती हैं। तज कर ममता खुद को जीतें, रखती विराग से नाता हैं; श्री ज्ञानमती का यह जीवन, हमको तो यही बताता है ॥ १७ ॥ श्री छोटेलाल धर्म प्रेमी, इस वीर नगर के गौरव थे; था गोयल गोत्र बंधु उनका, अग्रवाल वंश के सौरभ थे। श्रीमती मोहनी पत्नी पा, कुछ सुख का नहीं ठिकाना था; ईश्वर ने धन-यश-वैभव दे, हर ढंग से उनको माना था ॥ १८ ॥ थी शरद पूर्णिमा शुक्ल पक्ष, जिसको इतिहास न भूलेगा; संवत नौ कम दो हजार, महिना कुंवार दिन फूलेगा । उस दिवस प्रात से ही प्रियवर, इक लहर नई-सी दौड़ी थी; हर गली कली-सी लगती थी, तरुओं में होड़ा-होड़ी थी ॥ १९ ॥ था खुला मौन पाषाणों का, हलचल थी, हाटों, घाटों पर; था पतझड़ के घर पर वसन्त, मोहित बहार थी काँटों पर ।। हर आँसू ने सिर पर उस दिन, बाँधा खुशियों का सेहरा था; पूरब-पश्चिम-दक्खिन-उत्तर, हर ओर प्यार का पहरा था ॥ २० ॥ यह तो दिन का था हालचाल, पर निश का दृश्य निराला था; ज्यों पय में नहा रही हो, भू, ऐसा हर ओर उजाला था । जिसको न कभी देखा न सुना, वे तारे इस दिन ऊगे थे; अब शेष किसी की चाह न थी, पूरे सब के मनसूबे थे ॥ २१ ॥ था दिन ही ऐसा भाग्यवान्, निश में ऐसी चातुरता थी ; माँ आज मोहनी पर मोहित, लगती खुद ही सुन्दरता थी। श्री छोटेलाल पिता उस क्षण, मीठे सपनों में सोये थे; आता है कब मेहमान नया, पल-पल में आस सँजोये थे ॥ २२ ॥ ज्यों दस बजकर दस मिनट हुए, थी घड़ी, घड़ी वह ले आई; सम्पूर्ण चाँदनी धरती पर, स्वागत के लिए उतर आई । माँ तभी मोहिनी धन्य हुई, हो गई धरा पर नरमी थी ; उस शरद पूर्णिमा में उसने, यह ज्ञान पूर्णिमा जन्मी थी ॥ २३ ॥ पा करके कन्या रत्न तभी, हो गगन मगन हो झूम चला; छोटे के छोटे उपवन में, यह, पहला प्रेम प्रसून खिला । था स्वयं उजाला अचरज में, लख करके ऐसी दीपशिखा;
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