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वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला
नारी आदर्श की गौरव प्रदात्री
- रमेश कुमार जैन एडवोकेट, नयी दिल्ली
मुझे यह जानकर हार्दिक प्रसन्नता हुई कि प्रातः स्मरणीया, परम तपस्विनी गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी का अभिवंदन ग्रंथ प्रकाशित किया जा रहा है।
पूज्य माताजी ने १२-१३ वर्ष की अल्पायु में ही वैराग्य का दृढ़ संकल्प, १८ वर्ष की आयु में आजन्म ब्रह्मचर्यव्रत, १९ वर्ष की आयु में क्षुल्लिका दीक्षा एवं २१ वर्ष की आयु में आचार्य श्री शांतिसागरजी महाराज की आज्ञा से आचार्य श्री वीरसागरजी महाराज से माधोराजपुरा (राज.) में आर्यिका दीक्षा लेकर, हजारों मील की पद यात्रा कर, अनेक शिष्य-शिष्याओं को वैराग्य मार्ग की ओर प्रवृत्त कर भारतीय नारी के प्राचीन आदर्श गौरव को महानता प्रदान की है।
सत्-साहित्य सृजन के क्षेत्र में तो पूज्या माताजी का योगदान जैन संस्कृति के इतिहास में स्वर्णाक्षरों में लिखा जायेगा। हस्तिनापुर में आपकी प्रेरणा एवं निर्देशन में निर्मित ऐतिहासिक जम्बूद्वीप की रचना ने तो भारत के साथ-साथ विदेशों में भी जैनधर्म के प्रति जिज्ञासा एवं अन्वेषण के नये मार्ग प्रशस्त किये।
मुझे अनेक बार पूज्या माताजी के दर्शन का सुअवसर मिला। माताजी हर समय हर किसी के लिए ज्ञान की धारा निर्बाध रूप से बहाती हैं। उनके तो दर्शनमात्र से ही अद्भुत शान्ति मिलती है। अभी २७ अप्रैल को हस्तिनापुर में पूज्या माताजी ने मुझे जो स्नेहसिक्त मार्गदर्शन धर्माचरण कादिया, वह मुझे सदैव याद रहेगा तथा वह मेरी अमूल्य थाती है।
पूज्या माताजी जैसी महामानव के अभिवन्दन में कुछ कहना शब्दों के वश की बात नहीं है। बस जिनेन्द्रदेव से यही प्रार्थना है कि पू० माताजी दीर्घकाल तक इसी प्रकार ज्ञान गंगा प्रवाहित करती रहें।
सरल सहजमूर्ति पूज्या माताजी के चरणों में नमोस्तु सहित अपनी सर्वश्रेष्ठ विनम्र विनयाञ्जलि अर्पित करता हूँ।
"धन्य हो गयी माँ को पाकर" - श्रीमती विमला जैन ध०प० श्री जिनेन्द्र प्रसाद जैन
ठेकेदार, नयी दिल्ली
मेरे ससुरजी [लाला श्यामलाल जैन ठेकेदार] ज्ञानमती माताजी के नजफगढ़ दर्शन करके घर आये तो उन्होंने बतलाया कि विमला ! तुम्हें माताजी ने बुलाया है। सुनकर बहुत प्रसन्नता हुई कि एक त्यागी ने मुझे याद किया है। सो मैं अपने ससुर के साथ नजफगढ़ आर्यिका ज्ञानमती माताजी के दर्शनार्थ गई। उनके दर्शन करने पर मुझे ऐसा प्रतीत हुआ कि मेरा ज्ञानमती माताजी से बहुत भव पहले से परिचय है, जबकि मैं आर्यिका ज्ञानमती माताजी के सर्वप्रथम दर्शनार्थ गयी थी। माताजी का वात्सल्य पाकर मैं धन्य हो गई और उनके प्रति भक्ति व श्रद्धा जाग्रत हो गयी। कुछ समय बाद माताजी अपने संघ वर्धमान सागर, संभवसागर, ज्ञानमती माताजी, आदिमती जी , रत्नमती माताजी, श्रेष्ठमती माताजी आदि) के साथ नयी दिल्ली जयसिंहपुरा दि० जैन मन्दिर में आयीं और मैंने चौका लगाया। मेरी बदामो मौसीजी और बाबूजी [लाला श्याम लालजी] आहार देते थे
और मैं तो सिर्फ आहार [भोजन] ही बनाती थी; क्योंकि शूद्र जल का त्याग न होने से माताजी मेरे से आहार नहीं लेती थीं; मुझे आहार बनाने में ही इतना आनन्द आता था कि मैं उस आनन्द का वर्णन नहीं कर सकती। माताजी के प्रति भी इस तरह भक्ति बढ़ती ही गयी। मेरे सब बच्चों की शादी बिना परिश्रम किये सम्पन्न हुई, जो कि मैं उनका आशीर्वाद व वात्सल्य का ही परिणाम मानती हूँ। उनके मार्गदर्शन तथा उनकी प्रेरणा सेधर्म मार्ग में आगे बढ़ती चली गयी। मेरी शंकाओं को वे सरल भाषा में संबोधती थीं, जिससे मेरे को बहुत शान्ति मिलती थी। उनके जीवन-परिचय से पता चला कि गृहस्थरूपी कीचड़ में धंसने से पहले ही वैराग्य ले लिया, जबकि हम गृहस्थरूपी कीचड़ में धंसे पड़े हैं और मैं इस गृहस्थ रूपी कीचड़ से निकलने का प्रयास करने लगी। मैंने सर्वप्रथम शूद्र जल का त्यागकर आहार देना शुरू कर दिया। बाद में हम दोनों [पति-पत्नी] ने ८ मार्च १९८७ को क्षु० मोतीसागरजी महाराज की दीक्षा पर पूज्य आर्यिका ज्ञानमती माताजी से आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत धारण किया। अपने विचारों को सँभाला। माताजी द्वारा समय-समय पर मार्गदर्शन से मेरे मन में शान्ति व गृहस्थ के प्रति राग व द्वेष में मन्दता आयी। पू० माताजी ज्ञान की
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