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गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ
ममतामयी माँ ज्ञानमती
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बात है हस्तिनापुर के प्रथम शिक्षण-प्रशिक्षण शिविर की, जोकि परम पू० माताजी के पावन सानिध्य एवं मार्ग-दर्शन में संपन्न होने जा रहा था । बड़नगर से मैं स्वयं, भाई गुणवंत एवं सुगनचंदजी गोधा तीनों ही शिविर में भाग लेने हेतु हस्तिनापुर एक दिन पूर्व ही पहुँचे। अगले दिन ही शिक्षण शिविर प्रारंभ होने वाला था। प्रातःकाल उठकर स्नान आदि क्रिया संपन्न करके अभिषेक पूजन के लिए हम हस्तिनापुर के प्राचीन मंदिरजी पहुँचे (जहाँ पर तेरह पंथ आम्नाय के अनुसार पूजन आदि क्रिया होती है) हमने वहाँ पर भगवान् का अभिषेक चंदन आदि से किया। हमें यह मालूम था कि यह हमारी अनधिकृत पेष्टा है, किंतु हमसे रहा नहीं गया। हमारे मस्तिष्क में एक ही बात बार-बार चोट कर रही थी कि तीर्थस्थानों पर समाज के प्रत्येक व्यक्ति को अपनी आम्नाय के अनुसार क्रिया करने की स्वतंत्रता होनी चाहिये; क्योंकि वह समस्त समाज की धरोहर है। अस्तु, यह बात वहाँ के मैनेजर साहब को मालूम हुई वह भागते हुए वहाँ आए और हमें कायवश अनेक अपशब्द कहे। सभी को यह बात अच्छी नहीं लगी। यह बात जब माताजी को मालूम हुई तो उन्होंने हमें समझाया और कहा कि तुम लोगों को अपनी क्रिया अनुसार अभिषेक पूजन करना हो तो जंबूद्वीप स्थल पर जाकर ठाट से करो और तत्काल माताजी ने शिविर में भाग लेने हेतु आये समस्त लोगों के लिए एक आचार संहिता तैयार की, जिसका पालन सभी ने किया।
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अजीत टोंग्या, गुणवंत टोंग्या, बड़नगर
घटना जो होनी थी सो हो गई, लेकिन जिस वात्सल्य से माताजी ने हमें समझाया उसको हम कभी भी भुला नहीं सकेंगे।
जैन इतिहास में शायद ही ऐसी कोई विदुषी महिला हुई हो जिसने माँ जिनवाणी की इतनी सेवा की हो पू० माताजी के समाज पर अनन्य उपकार हैं।
पू० माताजी के चरणों में शत शत वंदन ।
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ज्ञानमती माँ के चरणों में वन्दन शत-शत बार है
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पूज्य ज्ञानमती माताजी ने शुरू से ही मिध्यात्व का पक्ष नहीं लिया, चाहे कितनी भी बीमारी घर में आती थी सबसे प्रथम शांतिधारा करना, पूजा की सामग्री भेजना, गंधोदक लाकर लगाना इसी में विश्वास था और इसी से सभी संकट टल जाते थे घर में आप शील कथा, दर्शन कथा पढ़ा करती थीं, जिसे सुनकर हम लोगों को बहुत अच्छा लगता था। एक बार घर में घी आया, जिसमें कुछ चीटियाँ थीं। पू० माताजी ने देखा और कहा कि अगर यह छानकर ले आता तो हम क्या जान पाते। उसी दिन उन्होंने बाहर के घी का त्याग कर दिया। मेरे माता-पिताजी को बहुत दुःख हुआ था कि इतनी छोटी सी उम्र में इसने घी का त्याग कर दिया। अब इसे हम क्या बनाकर खिलायें ? क्या सूखा खाना खायेगी ? फिर मलाई से थोड़ा-थोड़ा भी निकालकर देने लगी थी।
श्रीमती देवी, बहराइच
हमें उस दिन का दृश्य याद आता है जिस दिन हम लोगों ने सुना था कि माताजी शादी नहीं करेंगी। ब्रह्मचर्य व्रत लेंगी। उस दिन हम सभी भाई-बहन खूब रोये थे, उस दिन सुबह खाना नहीं बना था। कितना दुःखद दृश्य लग रहा था ? फिर धीरे-धीरे कुछ स्थिति सामान्य हुई थी। हम लोगों ने आपस में विचार किया कि अब हमारी जीजी घर में रहेंगी, ससुराल नहीं जायेंगी। मोह कितना प्रबल होता है ? फिर एक दिन ऐसा आया कि माताजी रत्नकरंड श्रावकाचार पढ़ने के लिए देशभूषणजी महाराज के पास, जो बाराबंकी में थे, भाई कैलाशचंद के साथ चली गईं और कह गई थीं कि महाराजजी से पूछकर शाम को वापस आ जाऊँगी, लेकिन जब भाई साहब अकेले आये और कहा कि जीजी ने कहा है कि तीन-चार दिन में आऊँगी। उस दिन सबको (रुलाई आयी थी) खला था।
एक बार पू० माताजी ने अकलंक निकलंक नाटक देखा था, जिसमें कि उनके माता-पिता शादी के लिए कह रहे हैं, तब अकलंक निकलंक दोनों कहते हैं- पिताजी कीचड़ में पैर रखकर धोने की अपेक्षा कीचड़ में पैर ही न रखें। इसी तरह के दृश्य आपके वैराग्य को बढ़ाते रहे और आपका ज्ञान चरम सीमा पर पहुँच गया। आज हम लोगों के गृहस्थ जीवन में न जाने कितने उदाहरण ऐसे मिलते हैं कि जिनसे कुछ देर के लिए हृदय में ऐसे भाव उठते हैं कि सच्चा सुख त्याग में ही है, लेकिन फिर भी असली वैराग्य नहीं होता। जबकि ये पंक्तियाँ हम रोज पढ़ते हैं कि
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