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वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला
जय गणिनी माँ ज्ञानमती तव चरणन कोटि प्रणाम है
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जिनवाणी की मूर्तरूप मी ज्ञानमती तब वन्दन । संयम की साकार रूप कोटिक कोटिक अभिनंदन ॥ पूजा की पूजक आराधक और ज्ञान की नंदन । भक्ति भाव से नितप्रति मेरा तव चरणों में वंदन ॥
यथानाम तव गुणगरिमामय देखा रूप तुम्हारा । संयम की सुगंध से तुमने अपना रूप निहारा ॥ जग उद्धारक जनहित कारक सिद्धों को अपनाकर । ज्ञान लोक से अन्तर तम को काटा यथा दिवाकर ||
श्रावक के षट् कर्त्तव्यों में प्रथम रूप पूजन है I मंगल वाणी से प्रसूत उससे उपकृत जन-जन है ॥ भावों भरी आत्म सुखकारी सहृदयी रचनाएँ । आराधन कर लाखों जन-जन जिन्हें आज अपनाएँ ॥
गूढ़ गम्य आगमवाणी को हृदयंगम कर लीना । जन-जन के उपकार हेतु माँ भव्यों को सुखदीना ॥ जिनवाणी की परम्परा में जो सतकार्य किया है। कोटिक विज्ञजनों के द्वारा नहिं साकार हुआ है ॥
सुन्दर भव्य मनोहर सुखकर आत्मज्ञान गुणकारी । रचनाओं का पाठन करके भव्य मोक्ष अधिकारी ॥
आर्षग्रन्थ में वर्णित जम्बूद्वीप कथन मनहारी । रचना कर लोकोत्तर युग का कार्य किया सुखकारी ॥
- वर्द्धमान कुमार जैन सोरया, प्रकाशक वीतरागवाणी मासिक, टीकमगढ़
कोटि-कोटि जन युगों-युगों तक हों कृतज्ञ माँ तेरे । तव चरणों की सम्यक् भक्ति हृदय बसे नित मेरे ॥
मेरा कोटि नमन है
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श्रीमती गजरादेवी सौरया सैलसागर, टीकमगढ़ [म०प्र० ]
संयम की सुगंध से आलोकित जिनका तन-मन है । गणिनी ज्ञानमती के चरणन मेरा कोटि नमन है ॥ दर्शन, ज्ञान, आचरण तीनों का जहाँ हुआ मिलन है ।
पूज्य आर्यिका ज्ञानमती का मंगल अभिनंदन है ॥
अभिनंदन का अर्घ्य आपको अर्पित हर्षित मन है । शत-शत कृतज्ञता से पूरित भारत का हर जन है ॥ ज्ञान ध्यान, तपः युक्ता का आगम जहाँ कथन है । किया उसे साकार आज तुम सा न अन्य कोई जन है ॥
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