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वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला
पूज्य माताजी अक्सर यह कहा करती हैं कि जब तक मेरे पैरों में शक्ति थी, स्वास्थ्य अनुकूल था। मैंने हजारों मील की पद यात्रा कर ली है। अब मुझे डोली में बैठकर विहार में मानसिक अशांति होती है। मुझे किसी तरह की प्रभावना आदि का लोभ नहीं है, अतः हस्तिनापुर में रहकर मेरी आत्म साधना ठीक चलती रहे, यही मेरी कामना है।
पश्चिमी उत्तर प्रदेश में साधुसंघ विहार की प्रेरिकाजंबूद्वीप रचना के माध्यम से श्री ज्ञानमती माताजी ने पश्चिमी उत्तर प्रदेश को जहाँ एक विश्व की अद्वितीय धरोहर प्रदान की है, वहा बड़े-बड़े साधु संघ भी आपकी प्रेरणा से इस प्रान्त में पधारे, जिससे जैनत्व का विस्तृत प्रचार हुआ है।
परमपूज्य आचार्य श्री १०८ धर्मसागर महाराज के पदार्पण के पश्चात् सन् १९७५ में आचार्यकल्प श्री श्रुतसागर महारान का हस्तिनापुर एवं उत्तर प्रदेश के कुछ नगरों में पदार्पण हुआ, पुनः सन् १९७९ में सुमेरु पर्वत की प्रतिष्ठा महोत्सव में आचार्यकल्प श्रेयांस सागर महाराज का ससंघ पदार्पण हुआ। सन् १९८५ में जंबूद्वीप जिनबिम्ब प्रतिष्ठापना महोत्सव पर आचार्य श्री धर्मसागर महाराज संघस्थ मुनि श्री निर्मल सागरजी एवं कतिपय मुनि-आर्यिकाओं का आगमन हुआ तथा आचार्य श्री सुबाहुसागर महाराज ससंघ पधारे।
पूज्य माताजी की सदैव यह हार्दिक इच्छा रही है कि संसार में प्रथम बार निर्मित जंबूद्वीप रचना के दर्शनार्थ एवं उत्तर प्रदेश की जनता के धर्म लाभ हेतु सभी साधु संघ हस्तिनापुर एवं इस प्रांत में पधारें। अपने निकटस्थ भक्तों को वे इसके लिए प्रेरणा भी प्रदान करती रही हैं। इसी प्रेरणा के फलस्वरूप सन् १९८७ में सन्मार्ग दिवाकर आचार्य श्री विमलसागर महाराज के विशाल संघ का हस्तिनापुर पदार्पण हुआ और मेरठ, बड़ौत आदि शहरों में भी कुछ समय तक संघ का प्रवास रहा। इसी प्रकार सन् १९८९ में पूज्य माताजी की प्रेरणा से आचार्य श्री कुंथुसागर महाराज के चतुर्विध संघ का हस्तिनापुर पदार्पण हुआ। यहाँ ४० दिवसीय प्रभावना पूर्ण प्रवास के पश्चात् बड़ौत, मुजफ्फरनगर आदि नगरों में उनके चातुर्मास भी हुए।
पश्चिमी उत्तर प्रदेश की जनता पूज्य श्री ज्ञानमती माताजी की इस प्रेरणा, उदारता से अपने को सौभाग्यशाली मानती हैं। इसके अतिरिक्त आचार्य श्री सुमतिसागर महाराज, श्री दर्शन सागरजी, आचार्य श्री कल्याणसागरजी आदि के संघ इस प्रदेश में पधारते हैं। वे जंबूद्वीप रचना के निमित्त से हस्तिनापुर भी अवश्य पहुँचते हैं, यह सब पूज्य माताजी की प्रबल प्रेरणा एवं धर्मवात्सल्य का ही फल है।
तन्मयता ने चिन्मयता दीकुशल व्यापारी जब व्यापार में तन्मय होता है तो एक दिन सेठ बन जाता है, कुशल चित्रकार अपनी चित्रकारी में तन्मय होकर अचेतन चित्रों में जान फूंक देता है, कुशल डाक्टर तन्मयतापूर्वक मरीजों का इलाज, ऑपरेशन आदि के द्वारा उसे नवजीवन प्रदान कर देता है, ध्यानी दिगम्बर मुनि ध्यान में तन्मय होकर केवलज्ञान को प्राप्त कर लेते हैं, शिष्य तन्मयतापूर्वक अध्ययन करके ऊँची-ऊँची डिग्री प्राप्त कर लेते हैं, गुरु तन्मयतापूर्वक शिष्यों को पढ़ाकर अपने से भी अधिक योग्य बना देते हैं। कहने का मतलब यह है कि तन्मयता प्राणी को उन्नति के शिखर पर पहुँचा देती है।
तत् शब्द में मयट् प्रत्यय लगकर तद्रूप अर्थ में 'तन्मय' शब्द प्रयुक्त होता है। पूज्य श्री ज्ञानमती माताजी जब अपने लेखन में तन्मय हो जाती हैं, तब उन्हें अपने दर्शनार्थ आने वाले यात्रियों का भान ही नहीं रहता। आश्चर्य तो तब होता है, जब हम लोगों के द्वारा बताए जाने पर कि दूर-दूर से दर्शनार्थी आये हैं, आपने इन्हें हाथ उठाकर आशीर्वाद भी नहीं दिया, तब वे कहती हैं कि मुझे तो कुछ पता ही नहीं था। मैं लेखन करती हुई साक्षात् समवशरण या अकृत्रिम चैत्यालयों के दर्शनार्थ पहुँच गयी थी। अभी ३ जुलाई की बात है-तहसील फतेहपुर (उ.प्र.) से पुतानचंदजी के सुपुत्र यशवंत कुमार और सुपुत्री हस्तिनापुर आए, माताजी के दर्शन किए, मैं दूसरे कमरे में बैठी लिख रही थी, मेरे पास आए, दर्शन किए और बोले शायद बड़ी माताजी ने हमें पहचाना नहीं। मैं उन्हें लेकर १५ मिनट बाद फिर माताजी के पास पहुँची, माताजी ने उन्हें देखा
और उन लोगों के साथ पुतानचंदजी के बारे में भी पूछा, फिर कहने लगी कि तुम लोग कब आए हो? मैंने कहा, ये तो अभी आपके दर्शन करके गए हैं। माताजी मुस्कराने लगी और बोलीं-मैं सिद्ध भगवान के गुणों में मगन थी (वे सिद्धचक्र विधान की रचना कर रही थीं) मुझे कुछ पता नहीं कि कौन कब मेरे दर्शन करने आया। खैर! वे लोग तो बेचारे माताजी की प्रवृत्ति जानते थे, इसलिए बुरा न मानकर पुनः उनका आशीर्वाद ग्रहण किया, किन्तु कितनी ही बार ऐसे प्रसंगों में कुछ भक्तगण नाराज भी हो जाते हैं। उनका कहना रहता है कि माताजी कम से कम हमारी ओर देखकर आशीर्वाद तो प्रदान करें, हम लोग दूर-दूर से केवल उन्हीं के दर्शनार्थ तो आते हैं, उनकी एक दृष्टिमात्र से हमारी सारी थकान दूर हो जाती है।
किसी अंश में भक्तों की अपनत्व भरी यह शिकायत मुझे सत्य ही प्रतीत होने लगती है और मैं माताजी से हंसी-हंसी में कहती भी हूँ कि लेखन के समय आपके साथ तो 'मयट्' प्रत्यय ही लग जाता है, तब आप सचमुच तद्रूप परिणत हो जाती है। उस समय माताजी का कहना होता है कि तन्मय हुए बिना सुंदर कार्य की उपलब्धि नहीं होती है। अधिक जोर देने पर वे कहने लगती हैं, "ध्यान और अध्ययन तो साधु का लक्षण ही है" इसमें भी श्रावक यदि बुरा मानें तो मैं क्या कर सकती हूँ। अब भक्तगण इस विषय पर स्वयं विचार करें और लिखाई-पढ़ाई में व्यस्त पूज्य
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