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गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ
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परवाह नहीं करते। यदि गुरु यह सोचकर कि मैं इसके दोषों को निकालने का प्रयत्न करूँगा तो यह कदाचित् नाराज हो जावेगा, संघ छोड़कर चला जावेगा, संघ टूट जावेगा; अतः इसके दोषों को प्रकट न करूँ। तो वह गुरु वस्तुतः गुरु पद के अयोग्य है। दोषों के साथ यदि शिष्य मरण को प्राप्त होता है तो वह दुर्गति में जाकर दुःख उठावेगा।
वर्तमान शताब्दी के महामुनि गुरूणांगुरु चारित्रचक्रवर्ती आचार्य श्री शांतिसागरजी महाराज अनुशासन की प्रतिमूर्ति थे। उन्हीं के पट्टशिष्य आचार्य श्री वीरसागरजी महाराज की शिष्या पूज्य श्री ज्ञानमती माताजी को भी अनुशासनप्रियता इन उभय गुरुओं से मानो धरोहर के रूप में प्राप्त हुई है। यही कारण है कि देश का बड़े से बड़ा व्यक्ति भी आपका लोहा मानता है।
___ आप जो कुछ भी कहती हैं अपने अनुभव के आधार पर कहती हैं। आपने जितना जो कुछ भी लिखा है वह पूर्वाचार्यों का अनुशरण करके लिखा है। इसीलिए आपकी वाणी या लेखनी में कहीं भी स्खलन दृष्टिगत नहीं होता। लेखकों तथा वक्ताओं के लिए भी आपका यही कहना रहता है कि वाणी एवं लेखनी में अनुशासन हो। न तो मनगढ़त लिखो न मनगढ़ंत बोलो; क्योंकि अनुशासनहीन वाणी व लेखनी श्रोताओं एवं पाठकों को अंधकारमय गड्ढे में गिरा देगी।
बाल्यकाल से ही ज्ञानमती माताजी (मैना) मां के अनुशासन में रहीं। जब सब बालिकाएं खेलती तब मां कहतीं खेलने में क्या रखा है ? मुझे यह दर्शन पढ़कर सुनाओ, पद्मनंदीपंचविंशतिका ग्रंथ का स्वाध्याय करो इत्यादि । मां की आज्ञा मानकर वही किया। आज उसी के फलस्वरूप वे ज्ञान का भण्डार बन गई।
जो अनुशासन में रहता है वह अनुशासन करने में भी सक्षम होता है। जब टिकैतनगर में चेचक का भयंकर प्रकोप चल रहा था। तब माता मोहिनी के छोटे पुत्र प्रकाशचंद व सुभाषचंद भी चेचक रोग से ग्रसित हो गये। गाँव के लोगों ने कहा- शीतलामाता की पूजा करवा दो। तभी मैना ने कहा-देवी की पूजा करना मिथ्यात्व है। चेचक किसी माता (देवी) का प्रकोप नहीं, बल्कि बीमारी है। मैना ने भगवान् जिनेन्द्र का गंधोदक लगाकर भाई प्रकाश व सुभाष को स्वस्थ कर दिया। गाँव वाले यह सब देखकर आश्चर्यचकित रह गये।
संघ में आचार्यप्रवर श्री वीरसागरजी महाराज की आज्ञा को सदैव शिरोधार्य किया। एक बार जयपुर के कतिपय सुधारक पंडितों ने शहर में यह चर्चा फैलाई कि आचार्य महाराज इतना बड़ा संघ लेकर सबको यहीं क्यों रोके हुए हैं। संघ के थोड़े-थोड़े साधुओं को आस-पास विहार कराना चाहिये। यह बात आचार्य श्री के कान तक भी पहुँच गई। तभी महाराज ने थोड़े- समूह में मुनियों एवं आर्यिकाओं को आस-पास में विहार करने की आज्ञा दी।
श्री ज्ञानमती माताजी को भी क्षु० पद्मावतीजी व क्षु० जिनमतीजी को लेकर बगरू की तरफ जाने के लिए कहा। माताजी ने कहा किमैं तो अभी बहुत छोटी हूँ। इस पर आचार्य महाराज ने कहा कि मुझे विश्वास है कि तुम्हारे द्वारा धर्म की प्रभावना होगी। तुम अपने नाम का सदैव ध्यान रखना। गुरु की आज्ञानुसार तब २ माह भ्रमण करके महति धर्म प्रभावना की। क्षु० जिनमतीजी को भी खूब अध्ययन कराया। संघ में वापस आने पर आचार्य महाराज बहुत प्रसन्न हुए।
एक बार जिनमती माताजी की ऐसी भावना बनी थी कि पहले समयसार पढ़ा जावे बाद में अन्य विषय, किन्तु माताजी ने पहले उन्हें सिद्धांत न्याय व्याकरण पढ़ाकर निष्णात किया बाद में समयसार पढ़ाया। इस प्रकार अपने शिष्यों को पढ़ाने पर पूरा अनुशासन रखा।
मुझे भी प्रारंभ में न्याय व्याकरण आदि के विषय पढ़ना कठिन तथा भाररूप लगते थे किन्तु फिर भी पहले सिद्धांत, न्याय, व्याकरण पढ़ाकर परीक्षाएं भी दिलवाईं, बाद में आध्यात्मिक विषयों का अध्ययन कराया।
अपने से छोटों पर अनुशासन करना तो कर्तव्य है ही। कभी-कभी बड़ों पर भी अनुशासन करने की आवश्यकता पड़ जाती है। माताजी ने आवश्यकता पड़ने पर अपने से बड़ों पर अनुशासन त्याग के बल पर किया । सन् १९५८ में आचार्य श्री शिवसागरजी महाराज सिद्धक्षेत्र गिरनार की यात्रा करके वापस लौट रहे थे तब संघस्थ मुनि श्री श्रुतसागरजी एवं सन्पतिसागरजी ने कारण विशेष से अलग विहार कर दिया। संघ के साधू-साध्वी कोई भी उन्हें नहीं जाने देना चाहते थे। अतः माताजी ने उन्हें वापस आने की प्रेरणा देने के लिए नमक का त्याग कर दिया।
संघ में वापिस लौटने के लिए माताजी का संदेश लेकर ब्र० राजमलजी को श्री श्रुतसागरजी महाराज के पास भेजा गया। ब्र० राजमलजी ने महाराज से जाकर कहा कि आपके संघ में वापस लौटने तक ज्ञानमती माताजी ने नमक का त्याग कर दिया है। यह सुनते ही महाराज ने संघ में वापस आने के लिए पिच्छी कमण्डलु लेकर उल्टे पैर प्रस्थान कर दिया। संघ में महाराज के आने पर हर्ष की लहर दौड़ गई। उन्होंने संघ में आते ही सर्वप्रथम ज्ञानमती माताजी से कहा कि अब मैं वापस आ गया हूँ तथा जीवन में कभी भी आ० श्री शिवसागरजी महाराज को छोड़कर नहीं जाऊँगा, अब आप नमक लेना प्रारंभ कर दें। इस प्रकार उन्होंने अपनी वचनबद्धता को निभाते हुए आ० श्री शिवसागरजी महाराज के जीवनपर्यंत संघ नहीं छोड़ा तथा इसके लिए माताजी के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित की।
इस प्रकार माताजी ने आवश्यकता पड़ने पर अपने से बड़ों पर भी अनुशासन करके सफलता प्राप्त की।
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