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वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला
प्रसन्नचित्त होना चाहिये। धर्म, ज्ञान, वैराग्य भावना से अनुप्राणित होना चाहिये। आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी ने श्रमण्यार्थी के कर्तव्यों को बतलाते हुए लिखा है
"आपिच्छ बंधुवगं विमोचदो गुरुकलत्त पुत्तेहि ।
आसिज्ज णाण दंसण चारित्त तव वीरियायारं ॥ प्रवचनसार २०२ ॥ अर्थात् श्रमण दीक्षा अङ्गीकार करने वाला बंधुवर्ग से पूछकर परिवार के वृद्धजन, स्त्री तथा पुत्र आदि से मुक्त होता हुआ ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चारित्राचार, तप-आचार और वीर्याचार को ग्रहण करके विरक्त होता है।
वैराग्य प्रवण पुरुष के लिए जो विधान है, वही विधान वैराग्य प्रवणा नारी के लिए है।
जो पुरुष दीक्षार्थी भी उक्त प्रकार से लोक व्यवहार का पालन करके और यथार्थ में संसार शरीर भोगों से विरक्त होकर माताजी के पास आया। उसे समता भाव में लीन, गुणों से परिपूर्ण, कुल रूप. तथा अवस्था में उत्कृष्ट, मुनियों के द्वारा मान्य, आचार्य श्री देशभूषण, आचार्य श्री वीरसागर, आचार्य श्री धर्मसागर महाराज से दिगम्बर दीक्षा दिलाकर चारित्र धर्म की प्रभावना की।
जिन कन्याओं/महिलाओं ने आकर माताजी से आर्यिका दीक्षा या क्षुल्लिका दीक्षा ग्रहण करने की इच्छा व्यक्त की। उनका आगमानुसार निरीक्षण/परीक्षण करके आर्यिका या क्षुल्लिका दीक्षा आचार्यों से दिलवायी और आर्यिका चन्दनामती माताजी, क्षल्लिका श्रद्धामती आदि को अपने कर-कमलों से दीक्षित कर मोक्षमार्ग को प्रशस्त किया।
चारित्र धर्म की अभिवृद्धि के लिए माताजी ने विविध विरोधों को भी सहन किया। एकान्तवादी चारित्र धर्म के विरोधी लोगों को आगम के आधार पर अपने लेखन/प्रवचन/उपदेश आदि के माध्यम से निरुत्तर कर व्यवहार चारित्र/रत्नत्रय की प्राप्ति होती है। व्यवहार रत्नत्रय साधन है और निश्चय रत्नत्रय साध्य है। साध्य की प्राप्ति साधन के बिना संभव नहीं। अतः माताजी ने निश्चय चारित्र रूप साध्य की सिद्धि के लिए व्यवहार चारित्र की उपादेयता बतलायी है।
व्यवहार चारित्र पालन करने में स्वयं कठोर हैं और दूसरों को पालन कराने में भी शिथिलता इन्हें सहन नहीं है। माताजी ने अपनी शिष्याओं को गृहस्थ एवं श्रमण पुरुषों से दूर रहने का ही कठोर आदेश दिया। एकान्त में कोई आर्यिका किसी भी पुरुष से बात भी नहीं कर सकती है। जो आचार्य लोकव्यवहार की सब बातों को जानने वाले हैं, मोह रहित और बुद्धिमान् हैं, उनको सबसे पहले यह मालूम कर लेना चाहिये कि यह देश अच्छा है या नहीं? दीक्षा देने योग्य है या नहीं? मुनियों के लिए निर्वाह योग्य है कि नहीं? दीक्षार्थी पुरुष ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य इन तीन वर्षों में किस वर्ण का है अथवा पतित या बहिष्कृत तो नहीं है, उसके सब अंग पूर्ण हैं या नहीं? यदि अपूर्ण हों तो दीक्षा का पात्र नहीं है। वह राज्य अथवा लोक के विरुद्ध तो नहीं है ? इसने कुटुम्ब और परिवारजनों से आज्ञा ले ली है या नहीं? इसका घर आदि संबंधी मोह नष्ट हो गया है? यह अपस्मार-मृगी आदि रोग से रहित तो नहीं है। इत्यादि बातों को उसी की जाति या कुटुम्ब के लोगों से पूछकर निर्णय कर लेते हैं। (आचारसार शास्त्र ११ का हिन्दी रूपान्तर ।)
माताजी अनुशासनप्रिय हैं। प्रतिक्रमण आदि के लिए भी अकेली आर्यिका, मुनि या अनेक मुनियों के पास नहीं जा सकतीं। गणिनी आर्यिका के जो कर्तव्य हैं वे पूरे के पूरे माताजी में देखने को मिलते हैं। आचार्य श्री वीरसागर, शिवसागर, धर्मसागर के संघ में जब तक माताजी रहीं, तब तक सभी आर्यिकाओं, क्षुल्लिकाओं को अपने संरक्षण में रखा । क्वचित् कदाचित किसी में कोई दोष देखा तो उन्हें आचार्य से प्रायश्चित दिलवाया
और स्थितीकरण किया। किसी मुनि या क्षुल्लक में चारित्रदोष आ जाने पर उसको प्रायश्चित आदि दिलाया और उसका स्थितिकरण करके चारित्र धर्म की रक्षा की।
चारित्र धर्म की प्रभावना हेतु ही दिगम्बर मुनि और आर्यिका संहिता ग्रन्थों की रचना की। मुनि/आर्यिका को अपनी-अपनी समाचार विधि का सरलता से बोध कराना माताजी का मुख्य लक्ष्य रहा।
बाह्य क्रियाओं में शिथिलता महान् दोष मानते हुए आर्यिका के संपूर्ण विधान का पूर्णरूप से पालन कर रही हैं। दूसरी आर्यिकाओं/क्षुल्लिकाओं एवं श्रावक-श्राविकाओं को अपने योग्य चारित्र का पालन करा रही हैं।
माताजी ने भारत की प्राच्यकाल की दृष्टि को नारी के विषय में परिवर्तित कर दिया। नारी जाति के गौरव को बढ़ाया। संपूर्ण नारियों के जीवन को श्रेयस्कर बनाने का मार्ग प्रशस्त किया। नारी जीवन धन्य वाली आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी अपने साहित्यिक अवदान और चारित्र धर्म की विशिष्टता के कारण युग-युग तक जयवन्त रहेंगी।
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