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वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला
"कीचड़ में पैर रखकर धोने की अपेक्षा कीचड़ में पैर नहीं रखना ही अच्छा है, वैसे ही विवाह करके पुनः छोड़कर दीक्षा लेने की अपेक्षा विवाह
से उत्तम है।" पु० माताजी ने शादी न करने का निश्चय कर लिया था। लेकिन मन में सोची बात को पूरी करने के लिए कितनी कठिनाइयां और संघर्ष झेलने पड़ते हैं। यह तो पूज्य माताजी की आत्मशक्ति और अडिग मनोयोग ने सहायता की जिससे माताजी ने अभी तक जिस कार्य में कदम बढ़ाया उसमें पूज्य माताजी को सफलता और यश की प्राप्ति हुई।
आज हस्तिनापुर में जम्बूद्वीप की रचना , ८४ फीट ऊँचा सुमेरु पर्वत पू० माताजी के ध्यान - योग का ही प्रतिफल है। जिस समय माताजी विहार करती हुई श्रवलबेलगोल पहुँची और वहां भगवान बाहुबली के चरण सानिध्य में बैठकर १५ दिन तक ध्यान किया। मात्र १० बजे आहार के लिए नीचे आती पुनः ऊपर जाकर ध्यान में लग जाती। अपनी शिष्याओं के सुख-दुःख को भी भूलकर मौन ग्रहण कर ध्यान, चिन्तन और स्तोत्र पाठ करती हुई पू० माताजी को एक दिन जिस अलौकिक रचना के दर्शन हुए उसे पूज्य माताजी के मुख से सुनने का सौभाग्य अथवा लेखनीबद्ध पू० माताजी द्वारा लिखित मेरी स्मृतियों में किंचित् पंक्तियों में पढ़ने को मिल जाता है। 'मेरी स्मृतियां' पृ० ३२० पर पू० माताजी के शब्दों में - __"एक दिन रात्रि के पिछले प्रहर में लगभग ३-४ बजे के ध्यान में सहसा मुझे कुछ अलौकिक क्षेत्रों के दर्शन होने लगे। सुमेरु पर्वत से लेकर जंबूद्वीप के हिमवान आदि पर्वत उनके चैत्यालयों के दर्शन हुए और धातकी खंड, पुष्करार्ध द्वीप, नंदीश्वर द्वीप, कुंडलवर पर्वत और रुचक पर्वत के जिनमंदिरों के दर्शन हुए। मानों कभी पूर्व जन्म में मैंने इन अकृत्रिम चैत्यालयों के दर्शन किए ही हों। घंटो मेरा उपयोग उन्हीं जिनमंदिरों की जिनमूर्तियों की वंदना में लगा रहा। पुनः एक दिन दिव्य प्रकाश दिखने लगा। आज भी जब मैं उन दिनों को उस ध्यान को याद करती हूँ तो वह प्रकाश स्मृतिपथ में आ जाता है।"
पू० माताजी ने जब ध्यान समाप्त कर त्रिलोकसार ग्रन्थ उठाकर देखा और उसमें ज्यों का त्यों वर्णन पाया तो उनके हर्ष का पार नहीं। पू० माताजी ने अपनी सभी शिष्याओं को उन चार सौ अट्ठावन [४५८] चैत्यालयों के दर्शन कराए, उनका विस्तार सुनाया। सभी को महान आनन्द हुआ।
डेढ़ सौ ग्रन्थों की रचना भी पूज्य माताजी की योग साधना का ही फल है। घंटों-घंटों बैठकर स्वाध्याय करना और अपने शिष्यों को करा-करा कर पक्का करना। आज के उपलब्ध सभी शास्त्रों का ठोस अध्ययन कर पूज्य माताजी ने अपने ज्ञान को इतना विकसित कर लिया है कि अगर आज कोई माताजी के सामने शास्त्रार्थ करने बैठ जाएं तो वह कदापि जीत नहीं सकता।
आज जन-जन के मुख से यही सुनने को मिलता है कि पूज्य माताजी के समान आज इस युग में किसी का ज्ञान नहीं है। पू० माताजी इस युग की प्रथम विदुषी महिलारत्न है। जम्बूद्वीप के प्रथम दर्शन करने वाला मानव आकर यही कहता माताजी मैंने ऐसी अलौकिक रचना के कभी दर्शन नहीं किए। ऐसा लगता है कि हम तो मानो स्वर्ग में ही पहुंच गए हों। मेरे पास कहने के लिए शब्द नहीं है किन शब्दों में इस अभूतपूर्व रचना के बारे में कहूँ।
___आज पू० माताजी को योग साधना-तपस्या करते हुए ४० वर्ष व्यतीत हो गये। इस लम्बी अवधि ने पू० माताजी में वह शक्ति भर दी जो विशल्या में थी। लोग कहते हैं माताजी तो विशल्या हैं जिसने माताजी का आशीर्वाद पा लिया वह कृतकृत्य हो गया।
सन् १९९१ का चातुर्मास पू० माताजी का सरधना हुआ था। १७-६-९२ को एक महिला सरधना से आई और आते ही माताजी से कहने लगी-'माताजी जब से सरधने में आपने मेरे ससुरजी [बाबूरामजी] को पीछी लगाई, तब से उनका घाव जोकि तीन साल से नहीं भर रहा था बिना दवाई के ही ठीक हो गया, मेरे घर में तो चमत्कार हो गया। माताजी यह आपका ही प्रताप है, जो मेरे ससुर स्वस्थ हो गए अन्यथा उनके ठीक होने की कोई आशा नहीं थी।'
इस पंचमकाल दुषमकाल में इतना शुद्ध चारित्र धारण करनेवाले और इतनी कठिन तपस्या करनेवाले दुर्लभ है। बहुत ही विरले जीव हैं; जो इस संसार में स्वकल्याण के साथ-साथ परकल्याण करने में लगे हुए हैं। पू० माताजी ने अपना सम्पूर्ण जीवन इस यौगिक क्षेत्र के लिए अर्पण कर दिया। १८ वर्ष की लघुवय में ही क्षुल्लिका दीक्षा और फिर २ वर्ष पश्चात् आर्यिका दीक्षा धारण कर स्वयं मोक्षमार्ग में आगे बढ़ती हुई और अनेक शिष्यों को मोक्षमार्ग में लगाती हुई स्वपर कल्याण में संलग्न पू० माताजी इस युग की एक महान विभूति हैं। सचमुच कवि की ये पंक्तियाँ माताजी के जीवन में साकार हो उठी हैं
जो महाआत्मायें होती हैं वे युग परिवर्तन कर देती हैं। उनके जीवन की गाथाएं नित नव जीवन भर देती हैं। है वर्तमान गौरवशाली जो ऐसी ज्ञान प्रदाता हैं । प्रिय शान्तमूर्ति हैं ज्ञानज्योति श्री ज्ञानमती जी माता हैं।
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