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वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला
प्रभावी नाटककार :- किसी लेखक की कसौटी है-नाटककार होना; क्योंकि इसमें सजीव पात्र निर्मित करने पड़ते हैं और कथोपकथन व संवाद शैली में अपनी बात कहनी होती है। पूज्या ज्ञानमतीजी इस विद्या मे भी पारंगत हैं। उनके कई नाटक अनेक बार मंचित हो चुके हैं। जिनसेन आचार्य के महापुराण के आधार पर ऋषभदेव के कथानक पर माताजी ने "पुरुदेव नाटक" लिखा है। मानव सभ्यता के विकास, कृषि कर्म और ऋषि जीवन को साकार करने वाला यह नाटक है। "बाहुबली नाटक" स्वाभिमान और पुरुषार्थ के सदुपयोग का नाटक है। बाहुबली की क्षमा और तपस्या इस नाटक के केन्द्रबिन्दु हैं। इसमें दक्षिण भारत का श्रवणबेलगोला तीर्थ साकार हो उठा है। "रोहिणीनाटक" में संयम और तप के महत्त्व को प्रतिपादित किया गया है। मातातजी ने कुछ एकांकी भी लिखे हैं, जिनमें महासती चन्दना, णवकार मंत्र का प्रभाव, अहिंसा की पूजा, ऋषभदेव की शिक्षा
आदि विषयों को प्रभावी ढंग से प्रस्तुत किया गया है। इस प्रकार के नाटक-साहित्य द्वारा एक ओर माताजी का नाटककार का व्यक्तित्व अभिव्यक्त होता है तो दूसरी ओर युवा पीढ़ी के प्रति उनका वात्सल्य भी प्रकट होता है। इन नाटकों में माताजी ने जो निर्देशन सलाह दी है। वह उनके कलाकार मन का प्रतिरूप है। श्रव्य एवं दृश्य माध्यम अपनाने में मूल संस्कृति भी सुरक्षित बनी रहे इस बात को वे रेखांकित करना चाहती हैं। बाल-साहित्य निर्मात्री :- पूज्या माताजी बालकों को भविष्य का निर्माता मानती हैं। वे बड़ों को सुधारने, संस्कार देने की बात भी इसीलिए करती हैं, ताकि वे अपने बच्चों को सुधार सकें। बच्चों का जीवन-निर्माण नैतिक आदर्शों की आधारशिला पर हो, इसके लिए अच्छा बाल साहित्य होना जरूरी है। माताजी ने "बाल भारती", "बाल विकास", "बाल चित्रकथा सीरीज" आदि साहित्य की रचना इसी उद्देश्य से की है। महापुरुषों के जीवन प्रसंगों के माध्यम से अहिंसा, साहस, पुरुषार्थ, त्याग, मैत्री, क्षमा आदि नैतिक मूल्यों की प्रतिष्ठा इस साहित्य के माध्यम से हो सकती है। माताजी बाल-साहित्य की सिद्धहस्त लेखिका है। बच्चों के बुद्धि स्तर और उनकी रुचि को ध्यान में रखकर उन्होंने यह साहित्य लिखा है। जैन परिवारों के बच्चों को तो बाल विकास के १ से ४ भाग पढ़ना अनिवार्य कर देना चाहिये। बड़े बूढ़े भी इन्हें पढ़े तो ज्ञान ही प्राप्त करेंगे। प्रश्नोत्तर शैली, संवाद-पद्धति इन पुस्तिकाओं का विशेष आकर्षण है। संस्मरण लेखिका :- विद्वानों के बीच एक धारणा है कि बिना घुमक्कड़ हुए कोई अच्छा लेखक नहीं बन सकता, यह बात पूज्या माताजी के जीवन
और उनकी यात्रा वृतान्त सम्बन्धी पुस्तक "मेरी स्मृतियाँ" से सिद्ध हो जाती है। आत्मचरित्र लिखने की प्राचीन परम्परा है। आधुनिक युग में जैन विद्वान् श्री गणेशप्रसाद वर्णी की आत्मकथा "मेरी जीवनगाथा" ज्ञानवर्द्धक और महत्त्वपूर्ण संस्मरण ग्रन्थ है। उसी परम्परा का निर्वाह पूज्या माताजी ने अपनी इस पुस्तक में किया है, किन्तु किसी आर्यिकाश्री द्वारा लिखी यह पहली संस्मरण-पुस्तक है, आत्म-कथा है। अपने जीवनकाल के ५६ वर्षों का लेखा-जोखा सरल मन और सहज लेखनी से प्रस्तुत कर देना माताजी के साहस का ही कार्य है। वास्तव में यह पुस्तक जैनसमाज की अर्द्ध शताब्दी का एक प्रामाणिक इतिहास है। सम्पूर्ण समाज का दर्पण है। इसमें गिरनार-यात्रा, शिखरजी-यात्रा एवं दक्षिण भारत की यात्रा का जो वर्णन है, वह संपूर्ण भारत की जैन समाज की छवि उजागर कर देता है। इस पुस्तक से देश के सामाजिक एवं धार्मिक इतिहास का अध्ययन किया जा सकता है। इसके दूसरे संस्करण के परिशिष्ट में व्यक्तिनाम, नगर-गाँव, प्रमुख घटनाएँ उद्धृत श्लोक-सूक्तियाँ आदि की अकारादि क्रम से सूची दी जानी चाहिये। १९९० के बाद के संस्मरणों का दूसरा भाग भी माताजी द्वारा शीघ्र लिखा जाना चाहिये। इसमें पिछले वर्षों की वे घटनाएँ भी सम्मिलित हो सकती हैं, जो "मेरी स्मृतियाँ" में छूट गयी हों, और अब स्मृतिपटल पर आयी हों। इस पुस्तक में माताजी ने कई अनमोल वचन, स्थान-स्थान पर लिखे हैं। वे जीवन को प्रकाश देने वाले हैं।
पूज्या आर्यिकारत्न माता ज्ञानमतीजी का जो लेखिका का व्यक्तित्व है उसकी बहुत संक्षिप्त-सी यह आकृति उपस्थित की जा सकी है। इस रेखाचित्र में अभी रंग भरना तो शेष है। कई उन्मेष अभी अछूते रह गये हैं, उनकी लेखनकला रूपी सूर्य के। भक्ति-साहित्य, पूजा-साहित्य, विधान ग्रन्थों की तो इसमें चर्चा ही नहीं हो पायी। उनका कविहृदय, काव्य लेखन, एक स्वतंत्र मूल्यांकन भी अपेक्षा रखता है। अध्यात्म-दर्शन के धरातल पर चिन्तनपूर्ण लेखन का वृक्ष अंकुरित हुआ है, जिस पर उपन्यास, कथाओं, नाटकों, बाल-साहित्य, स्तवन आदि की शाखाएँ फैली हैं और उन पर संस्मरण लेखन. काव्य ग्रन्थों के फल खिले हैं। "ऐसे श्रुतदेवता के अक्षयवृक्ष रूपी पूज्या माताजी के सारस्वत व्यक्तित्व को श्रद्धापूर्वक बारंबार नमन।"
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