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गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ
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विशेषार्थ के द्वारा एक स्वतंत्र शोधग्रन्थ जैसा हो गया है। जैन दर्शन के सभी प्रमुख ग्रन्थों के उदाहरण देकर उसे पुष्ट बनाया गया है।
पूज्या माताजी का दार्शनिक लेखन पूर्णता को प्राप्त हुआ है- अष्टसहस्री के प्रामाणिक अनुवाद कार्य द्वारा। आचार्य उमास्वामी ने तत्त्वार्थसूत्र के प्रारंभ में जो मंगल श्लोक लिखा है- "मोक्षमार्गस्य" आदि उस पर आप्तमीमांसा या देवागमस्तोत्र नाम से एक स्वतंत्र ग्रन्थ श्री समंतभद्रस्वामी ने लिख दिया। इस ग्रन्थ पर श्री अकलंकदेव ने “अष्टशती" नामक भाष्यग्रन्थ लिखा और इस ग्रन्थ का अर्थ खोलने के लिए प्राचीन आचार्य श्री विद्यानंद ने “अष्टसहस्री' नामक दार्शनिक ग्रन्थ लिख दिया था प्रौढ़ संस्कृत और न्याय की शब्दावली में । इस मूल ग्रन्थ को पढ़ना और समझना विद्वानों के लिए बड़ी कठिन बात थी। पूज्या माताजी ने इस चुनौती को स्वीकार कर इस ग्रन्थ का हिन्दी अनुवाद प्रस्तुत करके दार्शनिक जगत् में एक ऐतिहासिक कार्य किया है। इसकी प्रशंसा जैनदर्शन के सभी विद्वानों ने की है। भारतीय दर्शनों में आ० माताजी की जो गहरी पैठ है और उनके ज्ञान का जो विशेष क्षयोपशम है, उसी से यह दुरूह कार्य संपन्न हुआ है। इस ग्रन्थ का अनुवाद माताजी ने ही नहीं किया है, अपितु ब्यावर
और दिल्ली के ग्रन्थ भण्डारों से प्राप्त पाण्डुलिपियों के विशेष टिप्पण एवं पाठान्तर भी इस संस्मरण में जोड़े गये हैं, जो माताजी की कुशल संपादनकला के प्रमाण हैं। लगता है माताजी की लेखन व सम्पादनकला में किसी प्राचीन गुरुकुल के सभी आचार्यों का बुद्धिकौशल विराजमान है, जो इतने कठिन कार्य को इतने कम समय में वे पूरा कर सकी हैं। माताजी के लेखन कार्य को देखकर सरस्वती देवी के अस्तित्व को प्रमाण की आवश्यकता नहीं है। उनके रूप में वे आज भी प्रत्यक्ष हैं। समयसार एवं मूलाचार जैसे प्राकृत और सिद्धान्त के ग्रन्थों का सम्पादन पूज्या माताजी के तलस्पर्शी अध्ययन और मनन का परिचायक है। चिन्तनपूर्ण गद्य लेखिका :- जैन दर्शन, न्याय और सिद्धान्त के प्राचीन ग्रन्थों का लेखन, सम्पादन, अनुवाद ही आर्यिका ज्ञानमतीजी ने नहीं किया है, अपितु उन्होंने स्वतंत्ररूप से जैन धर्म और दर्शन पर चिन्तनपूर्ण पुस्तकें भी लिखी हैं। उनमें से उनकी दो पुस्तकों का उल्लेख करना ही पर्याप्त होगा। १९८१ में उनकी एक पुस्तक प्रकाशित हुई थी- " जैनभारती", जिसके अब तक तीन संस्करण निकल चुके हैं। यह पुस्तक वास्तव में
जैन संस्कृति और दर्शन की आधारभूत पुस्तक है। माताजी ने इसमें सभी ग्रन्थों का सार भर दिया है। जैन दृष्टि से सष्टि क तीर्थंकर एवं अन्य महापुरुष, इस संसार का स्वरूप (त्रिलोक-वर्णन), धर्म का लक्षण, श्रावक धर्म एवं मुनि, साधुचर्या, द्रव्य-विवेचन, नय और प्रमाण, मोक्ष एवं उसका मार्ग, कर्म-सिद्धान्त आदि का ललित शैली में सप्रमाण सुन्दर वर्णन किया है। इस पुस्तक को पढ़ने के बाद जैन दर्शन
और संघ के संबंध में कुछ जानना शेष नहीं रहता। जैन विद्वानों के लिए तो यह पुस्तक आधारग्रन्थ है। चारों अनुयोगों का ज्ञान इसमें आ गया है। इतिहास, भूगोल, धर्मदर्शन, सिद्धान्त, न्याय एवं चारित्र धर्म इन सभी में जो विशेषता चाहिये वह सब पूज्या माताजी के माध्यम से इस पुस्तक में प्रकट हो गयी है।
चिन्तनपूर्ण और सुरम्य गद्य शैली का दूसरा उदाहरण है माताजी की बहु-उपयोगी पुस्तक-"प्रवचन-निर्देशिका" | आज जितने श्रोता नहीं है, उससे अधिक प्रवचन देने वाले विद्वान् पैदा हो गये हैं, किन्तु प्रवचन देने के वे कितने अधिकारी हैं, कितने प्रवीण, यह पुस्तक उन्हें दर्पण दिखा देती है। प्रवचन करना भी एक कला है, साधना है। उसके लिए यह पुस्तक आदर्श है। इस पुस्तक का मूलमंत्र है कि वक्ता को जैन धर्म के दर्शन का ठोस ज्ञान होना चाहिये। अपनी गुरु परम्परा का गर्व होना चाहिये। उसकी जानकारी इस पुस्तक में दी गयी है। प्रवचन-पद्धति के साथ सम्यक्दर्शन का विवेचन, व्यवहार-निश्चय, निमित्त-उपादान की वास्तविक जानकारी एवं श्रोता-वक्ता के संबंध एवं गुणों का विस्तार से निरूपण माताजी ने इस पुस्तक में किया है। वास्तव में यह पुस्तक जैन धर्म की आधारशिला है। इसका एक वाक्य ही दीपस्तम्भ है-“चारों अनुयोगों के अध्ययन के बिना ज्ञान अपूर्ण और एकांगी है।" पौराणिक-उपन्यास-लेखिका :- आर्यिकारत्न ज्ञानमतीजी का लेखन बहु-आयामी है। उन्होंने सिद्धान्त और दर्शन के ग्रन्थों के सम्पादन-अनुवाद-टीका आदि के श्रमसाध्य कार्य को करते हुए कथा-साहित्य पर भी अपनी लेखनी चलायी है। प्रथमानुयोग के ग्रन्थों से प्रेरणात्मक कथानक लेकर उन्हें आधुनिक शैली में प्रस्तुत करने में वे सिद्धहस्त लेखिका है। आज की युवा पीढ़ी प्राचीन जैन कथानकों से परिचित होकर उनके पात्रों के जीवन से प्रेरणा प्राप्त कर सकें, इसके लिए जैन पुराण और कथा-साहित्य के ग्रन्थों को आधुनिक शैली में प्रस्तुत करना जरूरी है। माताजी ने कई जैन उपन्यास लिखे हैं। उनमें “आटे का मुर्गा" एक नया उपन्यास है। इसमें यशोधरचरित्र के कथानक को आकर्षक शैली में लिखा गया है। यशोधर की कथा बड़ी प्रेरणादायक है। मन-वचन-काय से हिंसा के सूक्ष्म रूप को भी स्वीकार नहीं करना चाहिये, यह संदेश इस पुस्तक में दिया गया है। हिंसक-चाण्डाल, कोतवाल आदि मुनि के उपदेश और त्यागमय जीवन से अपनी दुष्प्रवृत्तियों को सद्वृत्तियों में बदल देते हैं, क्योंकि वे समझ जाते हैं कि अहिंसामय जीवन ही सुख का साधन है। पशु-संरक्षण एवं पक्षी सुरक्षा के लिए यह उपन्यास आधारभूमि प्रदान करता है। इसी प्रकार माताजी ने महाभारत के कथानक को जैन परम्परा में स्वीकृत कथानक के अनुसार संक्षेप में प्रस्तुत किया है। "जैन महाभारत" नामक यह लघु पुस्तिका महाभारत के पात्रों के जीवन के नये आयाम उद्घाटित करती है। माताजी का “प्रतिज्ञा" शीर्षक वाला उपन्यास एक कन्या मनोवती की उस प्रतिज्ञा के परिणाम को उपस्थित करता है, जो इसने जिनदेव-दर्शन के लिए ली थी। संयमित और व्रती जीवन की उपादेयता इसमें प्रतिपादित की गयी है।
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