________________
२६६]
वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला
लाड़-प्यार करना बुरा नहीं है, किन्तु उसके साथ-साथ उसे सुसंस्कारित करना भी आवश्यक है। तभी वे सुयोग्य बन सकेंगे।
पूज्य गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी ने घर में रहते हुए बाल्यकाल से ही माँ मोहिनी से अनुशासन में रहना सीखा। प्रत्येक कार्य को मर्यादा में रहकर समय पर सम्पन्न किया। जिसके कारण माता-पिता परिजन-पुरजन सभी इनसे प्रभावित रहते थे, इनकी बात मानते थे।
जब क्षुल्लिका दीक्षा धारण की, आचार्यरत्न श्री देशभूषणजी से श्री महावीरजी में सन् १९५३ में, तब से साधु पद के योग्य अनुशासन का निर्वाह प्रारंभ कर दिया। ज्ञानार्जन के अतिरिक्त और कोई नहीं। सन् १९५४ जयपुर चातुर्मास में आचार्यरत्न श्री देशभूषणजी महाराज के आशीर्वाद से अनुशासनबद्ध होकर कातंत्र व्याकरण का अध्ययन किया तो मात्र दो माह में ही पूरी व्याकरण कंठस्थ कर ली।
चा०च० आचार्य श्री शांतिसागरजी महाराज से आर्यिका दीक्षा ग्रहण करने की आज्ञा आचार्य श्री देशभूषणजी से प्राप्त हुई तब भी अकेली न जाकर क्षुल्लिका विशालमतीजी को साथ में लिया, वे थीं ज्ञानवृद्ध तथा वयोवृद्ध ।
कुंथलगिरि पहुँचकर जब आचार्य श्री से आर्यिका दीक्षा प्रदान करने हेतु प्रार्थना की तो आचार्य महाराज ने अत्यंत मिष्ठ शब्दों में कहा-"बाई ! मैंने तो अब दीक्षा देना बंद कर दिया है तथा मैंने अपना पट्ट वीरसागरजी को भेज दिया है; अतः तुम उन्हीं के पास जाकर दीक्षा ले लो।"
आचार्य देव की आज्ञा का शत-प्रतिशत पालन करते हुए आचार्य महाराज की समाधि के पश्चात् दक्षिण से सीधे उत्तर आकर आचार्य श्री वीरसागरजी महाराज से आर्यिका दीक्षा धारण कर ली। यही तो थी अनुशासनप्रियता जिसने वीरमती से ज्ञानमती बना दिया।
आचार्य श्री वीरसागरजी के संघ में आने से पूर्व म्हसवड़ में दो शिष्याएँ बनायी थीं, उन्हें भी लेकर आई थीं। यहाँ आचार्य श्री वीरसागरजी के संघ में आने के पश्चात् दो धाराएँ प्रवाहित होने लगीं। गुरु के अनशासन में रहना तथा शिष्यों को अनुशासन में रखना। वैसे यह एक कठिन कार्य रहा, किन्तु माताजी ने जिस कुशलता से इसका निर्वाह किया, वह एक अनूठा उदाहरण है।
पू० माताजी ने अनुशासन के बल पर ही शिष्यों को सुसंस्कारित किया। यदि अनुशासन को न अपनाया जाये तो व्यक्ति कभी भी उन्नति नहीं कर सकता। शिष्यों को, समाज को अनुशासित कैसे करना होता है, यह भी अपने आप में एक विशिष्ट कला है।
पहले तो यह देखना होता है कि जिसे अनुशासन में रखना है वह योग्य है या नहीं? यदि योग्य है तो वह कितना अनुशासन बर्दाश्त कर सकता है ? पूज्य माताजी ने अपनी इस ज्ञान शक्ति से शिष्यों को संयम मार्ग में आगे बढ़ाया, ज्ञान के क्षेत्र में माताजी के शिष्य-शिष्याएँ खूब आगे बढ़े।
जब जम्बूद्वीप रचना निर्माण का सुअवसर आया तब भी माताजी ने अनुशासन को ढीला नहीं छोड़ा। हस्तिनापुर में लगे शिक्षा/प्रशिक्षण शिविरों में आपकी अनुशासन प्रणाली को सैकड़ों विद्वानों एवं श्रेष्ठियों ने साक्षात् देखा। शिविर की गरिमा के अनुरूप माताजी ने जो-जो भी नियम निर्धारित किये थे उनका परिपालन सभी ने सहर्ष किया, जिसके फलस्वरूप अत्यंत प्रभावना के साथ शिविर सम्पन्न हुए एवं अपनी अमिट छाप छोड़ गये।
चाहे जम्बूद्वीप ज्ञानज्योति प्रवर्तन की लालकिला मैदान दिल्ली की इन्दिरा गाँधी की उपस्थिति वाली विशाल जनसभा हो या मंदिर की छोटी-सी प्रवचन सभा। माताजी के अनुशासन की कुशलता ने ही उन सभी को सफलता प्रदान की।
अनुशासन का मतलब यही है कि जिस समय जिस व्यक्ति को जो काम सौंपा गया है वह उस समय उस काम को पूर्ण दक्षता एवं लगन से पूरा करे। यदि उसने वैसा कर लिया तो समझना चाहिये कि वह काम निश्चित रूप से बढ़िया होगा।
सांसारिक कार्यों के लिए ही नहीं, प्रत्युत् मोक्ष प्राप्ति के लिए भी आत्मा पर अनुशासन की आवश्यकता रहती है। इसी का बोध कराने के लिए आचार्य श्री गुणभद्रस्वामी ने " आत्मानुशासन" नाम से ग्रंथ की रचना की है। आत्मा पर अनुशासन न कर पाने के कारण ही प्राणी संसार में भटक रहे हैं, जन्म-मरण के दुःख उठा रहे हैं। आचार्य श्री गुणभद्र स्वाभी आत्मानुशासन में लिखते हैं :
दोषान् कांश्चन तान् प्रवर्तकतया प्रच्छाद्य गच्छत्ययं । सार्धं तैः सहसा म्रियेद्यदि गुरूः पश्चात् करोत्येष किम्॥ तस्मान्ये न गुरुर्गुरुर्गुरुतरान् कृत्वा लघूश्च स्फुटं ।
ब्रूते यः सततं समीक्ष्य निपुणं सोऽयं खलः सद्गुरुः ॥१४ ॥ गुरु को शिष्य के प्रति किये जाने वाले व्यवहार का बोध कराते हुए कहते हैं कि गुरु शिष्य को दोषों मे प्रवृत्ति कराने के लिए या अज्ञानता के कारण उसके (शिष्य के) दोषों को ढकता है, प्रकाशित नहीं करता है और इसी मध्य उन दोषों के साथ शिष्य का मरण हो जाता है तब बाद में गुरु क्या कर सकता है ? कुछ भी नहीं कर सकता। ऐसी स्थिति में शिष्य विचार करता है कि दोषों को आच्छादित करने वाला गुरु हितैषी नहीं है, किन्तु जो दुष्ट व्यक्ति छोटे भी दोषों को हमेशा बारीकी से देखकर और उनको बड़ा बनाकर स्पष्ट प्रकट करता है वह दुष्ट भी सच्चा-हितकारी गुरु है।
कहने का तात्पर्य यह है कि सच्चा गुरु वही है जो शिष्य के दोनों को निकाल कर उसे उत्तम गुणों से युक्त करता है। ऐसा करने के लिए गुरु को कभी-कभी कठोरता भी धारण करना पड़ती है। गुरु की कठोरता से शिष्य के प्रतिकूल होने की भी संभावना रहती है, किन्तु गुरु इसकी
Jain Educationa international
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org